الفتوحات المكية

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(وفق مخطوطة قونية)

فإذا كان الأمر هكذا فاترك الخلق بجانب إن أردت تحصيل هذا المقام و ارجع إلى اللّٰه في أصل الفتوة فإن أصلها أن تخرج عن حظ نفسك إيثار الحظ غيرك لا تخرج عن حظ غيرك إيثارا لحظ غيرك فهذا ليس من الفتوة و لو كانت الفتوة هذا ما صح لها وجود فإذا تعارضت الأمور فرجح جانب الحق و زل عن حظك لما يستحقه جلاله إذ قد عاملك بصفة الفتوة مع غناه فأنت مع فقرك أحوج إلى ذلك و من إيثارك إياه أنه إن طلب منك أن تطلب منه أجرا على ما تفتيت به عليه فمن الفتوة أن تطلب الأجر فإن امتثالك أمره خروجك عن حظك فيحصل لك حظك بترك حظك مع تحقيق الوصف بالفتوة إبراهيم عليه السلام جاد بنفسه على النار إيثار التوحيد ربه فإن كان ذلك عن أمر إلهي فهو أعظم في لفتوة و إن لم يكن عن أمر إلهي فهو فتى على كل حال فإنه من آثر أمر ربه على هوى نفسه فهو الفتى

[حقيقة الفتوة إيثار العلم المشروع على هوى النفس المطبوع]

فحقيقة الفتوة أن يؤثر الإنسان العلم المشروع الوارد من اللّٰه على السنة الرسل على هوى نفسه و على أدلة عقله و ما حكم به فكره و نظره إذا خالف علم الشارع المقرر له هذا هو الفتى فيكون بين يدي العلم المشروع كالميت بين يدي الغاسل و لا ينبغي أن يقال هنا يكون بين يدي الحق كالميت بين يدي الغاسل فإنه غلط و مزلة قدم فإن الشرع قيدك فقف عند تقييده فما أوجب عليك مما هو له أن تنسبه إلى نفسك أو إلى مخلوق من المخلوقات سوى اللّٰه فمن الفتوة أن تنسبه إلى ذلك لا إلى اللّٰه حقيقة كما أمرك و إن دلك على خلاف ذلك عقلك فارم به و كن مع العلم المشروع و ما أوجب أن تنسبه إليه سبحانه فانسبه إليه تعالى و ما خيرك فيه فإن شئت أن تقف و لا تعين و إن شئت نظرت بما يتعلق بالمخير فيه من حمد فانسبه إليه و ما تعلق به من ذم فانسبه إليه و ما تعلق به من ذم فانسبه إلى نفسك أدبا مع اللّٰه فإن الأدب عبارة عن جماع الخير فما زلت عن مقام الفتوة



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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