الفتوحات المكية

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و قولك ﴿وَ هُوَ مَعَكُمْ أَيْنَ مٰا كُنْتُمْ﴾ [الحديد:4] ثم قلت إنك لو رفعت الحجب بيننا و بينك من كونك موصوفا بالسبحات الوجهية لاحترق ما أدركه بصرك بسبحات وجهك و بالنور صح ظهور العالم و هو وجوده فكيف يعدم من حقيقته الإيجاد هنا هي الحيرة ثم إنه على الأمرين أدخلت نفسك تحت حكم التحديد و هذا ينكره ما جعلته فينا من القوة العقلية الناظرة بالصفة الفكرية و ما لنا إلا حس و عقل فبالحس ما ندرك و بالعقل ما ندرك فقد وقع الحد إن كنت خلف الحجاب فأنت محدود و إن كنت أقرب إلينا من الحجاب فأنت محدود و إن كنت ﴿بِكُلِّ شَيْءٍ مُحِيطٌ﴾ [النساء:126] فأنت أقرب إلى نفي الحد فلما ذا أدخلت نفسك في الحد بما أعلمتنا به من الحجب الحائلة بينك و بيننا بيننا و بينك

[حارت العقول و ما خاطب الحق إلا العقول]

حارت العقول و ما خاطب إلا العقول و نصب أدلتها متقابلة فما أثبته دليل نفاه آخر ﴿إِنْ هِيَ إِلاّٰ فِتْنَتُكَ تُضِلُّ بِهٰا مَنْ تَشٰاءُ وَ تَهْدِي مَنْ تَشٰاءُ أَنْتَ وَلِيُّنٰا فَاغْفِرْ لَنٰا وَ ارْحَمْنٰا﴾ [الأعراف:155] و أي غفر أشد من هذا جزى اللّٰه عنا موسى عليه السلام حيرا إذ ترجم عنا بقوله ﴿إِنْ هِيَ إِلاّٰ فِتْنَتُكَ﴾ [الأعراف:155] اختبرت عبادك بالأدلة و ما ثم دليل يوصل إليك الدليل موضوع ليدل على واضع لا يدل على حقيقة واضعه فما رأينا بعد السبر و التقسيم و ما أعطاه الكلام القديم إلا أن تكون أنت عين الحجب و لهذا احتجبت الحجب فلا نراها مع كونها نورا و ظلمة و هو ما تسميت به لنا من الظاهر و الباطن و قد أمرتنا أن نتقي اللّٰه فإن لم يكن اللّٰه عين الحجاب عليه النوري من الاسم الظاهر و الظلمي من الاسم الباطن و إلا كنا مشركين و قد ثبت أنا موحدون فثبت أنك عين الحجاب

[احتجبنا عن الحق و احتجاب الحق عنا و سلبية الصفات الإلهية]

فما احتجبنا عنك إلا بك و لا احتجبت عنا إلا بظهورك غير أنك لا نعرف لكوننا نطلبك من اسمك كما نطلب الملك من اسمه و صفته و إن كان معنا غير ظاهر بذلك الاسم و لا بتلك الصفة بل ظهور ذاتي فهو يكلمنا و نكلمه و يشهدنا و نشهده و يعرفنا و لا نعرفه و هذا أقوى دليل على أن صفاته سلبية لا ثبوتية إذ لو كانت ثبوتية لا ظهرته إذا ظهر بذاته فما نعرف أنه هو إلا بتعريفه فنحن في المعرفة مقلدون له و كانت صفاته ثبوتية لكانت عين ذاته و كنا نعرفه بنفس ما نراه و لم يكن الأمر كذلك فدل على خلاف ما يعتقده أهل النظر و أرباب الفكر الصفاتين من المشبهة من أرباب العقول

[ما في الوجود إلا اللّٰه و ما في العدم الشيئى إلا أعيان الممكنات]

و هذا الأمر أدانا إلى أن نعتقد في الموجودات على تفاصيلها أن ذلك ظهور الحق في مظاهر أعيان الممكنات بحكم ما هي الممكنات عليه من الاستعدادات فاختلفت الصفات على الظاهر لأن الأعيان التي ظهر فيها مختلفة فتميزت الموجودات و تعددت لتعدد الأعيان و تميزها في نفسه فما في الوجود إلا اللّٰه و أحكام الأعيان و ما في العدم الشيء إلا أعيان الممكنات مهياة للاتصاف بالوجود فهي لا هي في الوجود لأن الظاهر أحكامها فهي و لا عين لها في الوجود فلا هي كما هو و لا هو لأنه الظاهر فهو و التميز بين الموجودات معقول و محسوس لاختلاف أحكام الأعيان فلا هو

فيا أنا ما هو أنا *** و لا هو ما هو هو

مغازلة رقيقة و إشارة دقية ردها البرهان و نفاها و أوجدها العيان و أثبتها فقل بعد هذا ما شئت فقد أنبت لك عن الأمر ما هو فما أخطأ معتقد في اعتقاده و لا جهل منتقد في انتقاده



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