الفتوحات المكية

رقم السفر من 37 : [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17]
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﴿يَنْقُضُونَ عَهْدَ اللّٰهِ مِنْ بَعْدِ مِيثٰاقِهِ﴾ [البقرة:27] و ذلك أنهم يعهدون مع اللّٰه أن يطيعوه فإذا حصلوا في مقام التقريب و الكشف رأوا أن اللّٰه هو العامل بهم ﴿وَ اللّٰهُ خَلَقَكُمْ وَ مٰا تَعْمَلُونَ﴾ [الصافات:96] فرأوا أنهم لا حول لهم و لا فعل و لا قول فنقضوا عهد اللّٰه برده إليه سبحانه لأنه ما انعقد ذلك إلا مع فاعل يفعله و رأوا مشاهدة أن اللّٰه هو الفاعل لذلك فلم يقع العهد في نفس الأمر إلا من اللّٰه بين اللّٰه و بين نفسه فعلموا أن الحجاب أعماهم عن هذا الإدراك في حين أخذ العهد و أن العهد إنما يلزم لأهل الحجاب فانتقض عهدهم و الأعمال تجري منهم بالله و هم لا يرونها فهم المعصومون في أعمالهم عن إضافتها إليهم و كذلك في قطعهم ما أمرهم اللّٰه أن يصلوه من أرحامهم فقال عليه السلام الرحم شجنة من الرحمن من وصلها وصله اللّٰه فوصلوها بالرحمن و ردوا القطعة إلى موضعها فشاهدوا الرحمن يمتن عليهم و خرج هؤلاء من الوسط و امتثلوا قول الشارع بصلة الرحم فأخذها الناس على صلة القرابة بالمال و يأخذ هؤلاء على صلة القربى إلى اللّٰه فهم يدلون أرحامهم على أصلهم و هو الرحمن و يرون في إعطائهم الصلات يد اللّٰه معطية و يد اللّٰه آخذة فإنها شجنة من الرحمن فالعطاء منه و الأخذ منه فانقطع هؤلاء عن صلة الرحم بالمال لأنهم لا يد لهم مع غاية الإحسان في الشاهد و الناس لا يشعرون و كذلك قوله ﴿وَ يُفْسِدُونَ فِي الْأَرْضِ﴾ [البقرة:27] و فساد دنياهم هو فسادهم في الأرض لأن الجنة في السماء و في هذا الفساد صلاح آخرتهم في السماء فيصومون و يسهرون و يحملون الأثقال الشاقة و هذا كله من فساد أرض أجسامهم لما طرأ عليها من النحول و الذبول و الضعف و هذا كله وصف أهل الشقاء في الكتاب فقال



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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