الفتوحات المكية

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(وفق مخطوطة قونية)

و ما كان أبوه قصد ذلك حين سماه به و إنما جعله له اسما علما يعرف به من غيره و إن كان ما قصد أبوه تحسين اسم ابنه إلا لخير

[اصطلاح أهل اللّٰه على ألفاظ گ يعرفها سواهم إلا منهم]

و لما رأى أهل اللّٰه أنه قد اعتبر الإشارة استعملوها فيما بينهم و لكنهم بينوا معناها و محلها و وقتها فلا يستعملونها فيما بينهم و لا في أنفسهم إلا عند مجالسة من ليس من جنسهم أو لأمر يقوم في نفوسهم و اصطلح أهل اللّٰه على ألفاظ لا يعرفها سواهم إلا منهم و سلكوا طريقة فيها لا يعرفها غيرهم كما سلكت العرب في كلامها من التشبيهات و الاستعارات ليفهم بعضهم عن بعض فإذا خلوا بأبناء جنسهم تكلموا بما هو الأمر عليه بالنص الصريح و إذا حضر معهم من ليس منهم تكلموا بينهم بالألفاظ التي اصطلحوا عليها فلا يعرف الجليس الأجنبي ما هم فيه و لا ما يقولون و من أعجب الأشياء في هذه الطريقة و لا يوجد إلا فيها إنه ما من طائفة تحمل علما من المنطقيين و النجاة و أهل الهندسة و الحساب و التعليم و المتكلمين و الفلاسفة إلا و لهم اصطلاح لا يعلمه الدخيل فيهم إلا بتوقيف من الشيخ أو من أهله لا بد من ذلك إلا أهل هذه الطريقة خاصة إذا دخلها المريد الصادق و بهذا يعرف صدقه عندهم و ما عنده خبر بما اصطلحوا عليه فإذا فتح اللّٰه له عين فهمه و أخذ عن ربه في أول ذوقه و ما يكون عنده خبر بما اصطلحوا عليه و لم يعلم أن قوما من أهل اللّٰه اصطلحوا على ألفاظ مخصوصة فإذا قعد معهم و تكلموا باصطلاحهم على تلك الألفاظ التي لا يعرفها سواهم أو من أخذها عنهم فهم هذا المريد الصادق جميع ما يتكلمون به حتى كأنه الواضع لذلك الاصطلاح و يشاركهم في الكلام بها معهم و لا يستغرب ذلك من نفسه بل يجد علم ذلك ضروريا لا يقدر على دفعه و كأنه ما زال يعلمه و لا يدري كيف حصل له و الدخيل من غير هذه الطائفة لا يجد ذلك إلا بموقف فهذا معنى الإشارة عند القوم و لا يتكلمون بها إلا عند حضور الغير أو في تأليفهم و مصنفاتهم لا غير



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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