الفتوحات المكية

رقم السفر من 37 : [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17]
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(وفق مخطوطة قونية)

لهم نظرة لا يعرف الغير حكمها *** لهم سطوة في كل تاج مكلل

[الليل و الغيب]

اعلم أيدك اللّٰه بروح منه أن اللّٰه جعل الليل لأهله مثل الغيب لنفسه فكما لا يشهد أحد فعل اللّٰه في خلقه لحجاب الغيب الذي أرسله دونهم كذلك لا يشهد أحد فعل أهل الليل مع اللّٰه في عبادتهم لحجاب ظلمة الليل التي أرسلها اللّٰه دونهم فهم خير عصبة في حق اللّٰه و هم شر فتية في حق أنفسهم ليسوا بأنبياء تشريع لما ورد من غلق باب النبوة و لا يقال في واحد منهم عندهم إنه ولي لما فيه من المشاركة مع اسم اللّٰه فيقال فيهم أولياء و لا يقولون ذلك عن أنفسهم و إن بشروا فجعل الليل لباسا لأهله يلبسونه فيسترهم هذا اللباس عن أعين الأغيار يتمتعون في خلواتهم الليلية بحبيبهم فيناجونه من غير رقيب لأنه جعل النوم في أعين الرقباء سباتا أي راحة لأهل الليل إلهية كما هو راحة للناس طبيعية فإذا نام الناس استراح هؤلاء مع ربهم و خلوا به حسا و معنى فيما يسألونه من قبول توبة و إجابة دعوة و مغفرة حوبة و غير ذلك فنوم الناس راحة لهم و إن اللّٰه تعالى ينزل إليهم بالليل إلى السماء الدنيا فلا يبقى بينه و بينهم حجاب فلكي و نزوله إليهم رحمة بهم و يتجلى من سماء الدنيا عليهم كما «ورد في الخبر فيقول كذب من ادعى محبتي فإذا جنه الليل نام عني أ ليس كل محب يطلب الخلوة بحبيبه هو أنا ذا قد تجليت لعبادي هل من داع فاستجيب له هل من تائب فأتوب عليه هل من مستغفر فاغفر له حتى ينصدع» «الفجر»

[مسامرة أهل الليل في محاريبهم]

فأهل الليل هم الفائزون بهذه الحظوة في هذه الخلوة و هذه المسامرة في محاريبهم فهم قائمون يتلون كلامه و يفتحون أسماعهم لما يقول لهم في كلامه إذا قال ﴿يٰا أَيُّهَا النّٰاسُ﴾ [البقرة:21] يصفون و يقولون نحن الناس ما تريد منا يا ربنا في ندائك هذا فيقول لهم عزَّ وجلَّ على لسانهم بتلاوتهم كلامه الذي أنزله ﴿اِتَّقُوا رَبَّكُمْ إِنَّ زَلْزَلَةَ السّٰاعَةِ شَيْءٌ عَظِيمٌ﴾ [الحج:1] ﴿يٰا أَيُّهَا النّٰاسُ﴾ [البقرة:21]



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