الفتوحات المكية

رقم السفر من 37 : [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17]
[18] [19] [20] [21] [22] [23] [24] [25] [26] [27] [28] [29] [30] [31] [32] [33] [34] [35] [36] [37]

الصفحة - من السفر وفق مخطوطة قونية (المقابل في الطبعة الميمنية)

  الصفحة السابقة

المحتويات

الصفحة التالية  
futmak.com - الفتوحات المكية - الصفحة 9408 - من السفر  من مخطوطة قونية

الصفحة - من السفر
(وفق مخطوطة قونية)

﴿إِنّٰا وَجَدْنٰاهُ صٰابِراً نِعْمَ الْعَبْدُ إِنَّهُ أَوّٰابٌ﴾ [ص:44] فذكره بكثرة الرجوع إليه في كل أمر ينزل به فمن حبس نفسه عند الضر النازل به عن الشكوى إلى اللّٰه في رفع ما نزل به و صبر مثل هذا الصبر فقد قاوم القهر الإلهي فإن اللّٰه قاهر هذا العبد و إن كان محمودا في الطريق و لكن الشكوى إلى اللّٰه أعلى منه و أتم و لهذا قلنا إن الدعاء لا يقدح و لا يقتضي المنازعة بل هو أعلى و أثبت في العبودة من تركه و أما الرضاء و التسليم فهما نزاع خفي لا يشعر به إلا أهل اللّٰه فإن كان متعلق الرضاء المقضي به فيحتاج إلى ميزان شرعي و إن كان متعلق الرضاء القضاء فإن كان القضاء يطلب القهر و يجد الراضي ذلك من نفسه فيعلم إن فيه نزاعا خفيا فيبحث عنه حتى يزيله و إن لم ير أن ذلك القضاء يطلب القهر فيعلم أنه الرضاء الخالص الجبلي لأن الرضاء من راض يروض و منه الرياضة و رضت الدابة و هو الإذلال و لا يوصف به إلا الجموع و الجموح نزاع إنما يراض المهر الصغير لجموحه و جهله بما خلق له فإنه خلق للتسخير و الركوب و الحمل عليه و المهر يأبى ذلك فإنه ما يعلمه فيراض حتى ينقاد في أعنة الحكم الإلهي و كذلك رياضة النفوس لو لا ما فيها من الجموح لما راضها صاحبها فإذا خلقت مرتاضة بالأصالة فكان ينبغي أن لا يطلق عليها اسم راضية بل هي مرضية و إنما النفوس الإنسانية لما خلقها اللّٰه على الصورة الإلهية شمخت على جميع العالم ممن ليست له هذه الحقيقة و انحجبت عن الحقائق الإلهية التي تستند إليها حقائق العالم حقيقة حقيقة فاكتسبت الرياضة لأجل هذا الشموخ فذلت تحت سلطانه و حمدت على ذلك و كذلك التسليم لم يصح إلا مع التمكن من الجموح و كذلك التوكيل لم يصح إلا بعد الملك فهو نزاع خفي و القهر الإلهي يخفى بخفاء النزاع و يظهر بظهور النزاع و العارف لا يغفل عن نفسه طرفة عين فإنه إذا غفل عن نفسه غفل عن ربه و من غفل عن ربه نازع بباطنه ما يجده من الأثر فيه مما يخالف غرضه فيجيء القهر الإلهي فيقهره فيكون إذ أكثر منه مثل هذا يسمى عبد القهار و إذا قل منه يسمى عبد القاهر و الضابط لهذه الحضرة أن ينظر الإنسان في خفايا موافقاته و مخالفاته فيعلم من ذلك هل لهذه الحضرة حكم فيه أم لا فهذا أمر كلي قد و وكلناك فيه إلى نفسك و أنت أعلم



هذه نسخة نصية حديثة موزعة بشكل تقريبي وفق ترتيب صفحات مخطوطة قونية
  الصفحة السابقة

المحتويات

الصفحة التالية  
  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

ترقيم الصفحات موافق لمخطوطة قونية (من 37 سفر) بخط الشيخ محي الدين ابن العربي - العمل جار على إكمال هذه النسخة.
(المقابل في الطبعة الميمنية)

 
الوصول السريع إلى [الأبواب]: -
[0] [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17] [18] [19] [20] [21] [22] [23] [24] [25] [26] [27] [28] [29] [30] [31] [32] [33] [34] [35] [36] [37] [38] [39] [40] [41] [42] [43] [44] [45] [46] [47] [48] [49] [50] [51] [52] [53] [54] [55] [56] [57] [58] [59] [60] [61] [62] [63] [64] [65] [66] [67] [68] [69] [70] [71] [72] [73] [74] [75] [76] [77] [78] [79] [80] [81] [82] [83] [84] [85] [86] [87] [88] [89] [90] [91] [92] [93] [94] [95] [96] [97] [98] [99] [100] [101] [102] [103] [104] [105] [106] [107] [108] [109] [110] [111] [112] [113] [114] [115] [116] [117] [118] [119] [120] [121] [122] [123] [124] [125] [126] [127] [128] [129] [130] [131] [132] [133] [134] [135] [136] [137] [138] [139] [140] [141] [142] [143] [144] [145] [146] [147] [148] [149] [150] [151] [152] [153] [154] [155] [156] [157] [158] [159] [160] [161] [162] [163] [164] [165] [166] [167] [168] [169] [170] [171] [172] [173] [174] [175] [176] [177] [178] [179] [180] [181] [182] [183] [184] [185] [186] [187] [188] [189] [190] [191] [192] [193] [194] [195] [196] [197] [198] [199] [200] [201] [202] [203] [204] [205] [206] [207] [208] [209] [210] [211] [212] [213] [214] [215] [216] [217] [218] [219] [220] [221] [222] [223] [224] [225] [226] [227] [228] [229] [230] [231] [232] [233] [234] [235] [236] [237] [238] [239] [240] [241] [242] [243] [244] [245] [246] [247] [248] [249] [250] [251] [252] [253] [254] [255] [256] [257] [258] [259] [260] [261] [262] [263] [264] [265] [266] [267] [268] [269] [270] [271] [272] [273] [274] [275] [276] [277] [278] [279] [280] [281] [282] [283] [284] [285] [286] [287] [288] [289] [290] [291] [292] [293] [294] [295] [296] [297] [298] [299] [300] [301] [302] [303] [304] [305] [306] [307] [308] [309] [310] [311] [312] [313] [314] [315] [316] [317] [318] [319] [320] [321] [322] [323] [324] [325] [326] [327] [328] [329] [330] [331] [332] [333] [334] [335] [336] [337] [338] [339] [340] [341] [342] [343] [344] [345] [346] [347] [348] [349] [350] [351] [352] [353] [354] [355] [356] [357] [358] [359] [360] [361] [362] [363] [364] [365] [366] [367] [368] [369] [370] [371] [372] [373] [374] [375] [376] [377] [378] [379] [380] [381] [382] [383] [384] [385] [386] [387] [388] [389] [390] [391] [392] [393] [394] [395] [396] [397] [398] [399] [400] [401] [402] [403] [404] [405] [406] [407] [408] [409] [410] [411] [412] [413] [414] [415] [416] [417] [418] [419] [420] [421] [422] [423] [424] [425] [426] [427] [428] [429] [430] [431] [432] [433] [434] [435] [436] [437] [438] [439] [440] [441] [442] [443] [444] [445] [446] [447] [448] [449] [450] [451] [452] [453] [454] [455] [456] [457] [458] [459] [460] [461] [462] [463] [464] [465] [466] [467] [468] [469] [470] [471] [472] [473] [474] [475] [476] [477] [478] [479] [480] [481] [482] [483] [484] [485] [486] [487] [488] [489] [490] [491] [492] [493] [494] [495] [496] [497] [498] [499] [500] [501] [502] [503] [504] [505] [506] [507] [508] [509] [510] [511] [512] [513] [514] [515] [516] [517] [518] [519] [520] [521] [522] [523] [524] [525] [526] [527] [528] [529] [530] [531] [532] [533] [534] [535] [536] [537] [538] [539] [540] [541] [542] [543] [544] [545] [546] [547] [548] [549] [550] [551] [552] [553] [554] [555] [556] [557] [558] [559] [560]


يرجى ملاحظة أن بعض المحتويات تتم ترجمتها بشكل شبه تلقائي!