الفتوحات المكية

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﴿بِرُوحٍ مِنْهُ﴾ [المجادلة:22] أن الحق لا يقاوم إلا بالحق فيكون هو الذي يقاوم نفسه و هو معنى «قوله ﷺ و أعوذ بك منك» فإذا اتصف العبد بصفة الجبروت و الكبرياء قصمه الحق فإنه تعالى لا يقهر إلا المنازع و لهذا العارف لا يتجلى له الحق في الاسم القاهر أبدا لأنه غير منازع فالعارف يتجلى بالاسم القاهر و لا يتجلى له الحق فيه و هذه الصفة في المخلوقين لا تكون قط عن حقيقة بل يعلمون عجزهم و قصورهم و إنما ذلك صورة ظاهرة كبرق الخلب فعلى قدر ما يظهر من هذه الصفة يتوجه القهر الإلهي و البطش الشديد و لما اختلف المحل على الصفة لذلك ظهر الأقوى على الأضعف فما وقع التفاضل إلا في المحل لا في الصفة فإذا صدع بأمر اللّٰه فالقهر بأمر اللّٰه لا له فنفذ في المصدوع لأنه ما قال له اصدع إلا و لا بد أن يكون ذلك قابلا للنفوذ فيه حتى يسمى مصدوعا فلو كان لا يقبل النفوذ لكان هذا الأمر عبثا إلا ترى إلى قوله تعالى ﴿وَ أَعْرِضْ عَنِ الْمُشْرِكِينَ﴾ [الأنعام:106] فإنه لا ينفذ في المشرك إذ لو نفذ لوحد فقال له و أعرض لأنهم ليسوا بمحل فيأمر الرسول المشرك من غير صدع و الذي علم منه أنه يجيب و يقبل الأمر و لو على كره هو الذي يصدع بالأمر فإذا تحقق العبد بهذا الذكر و لم ينكشف له من يقبل أمر ربه ممن لا يقبله فما هو في بعض الوجوه ممن دعا إلى اللّٰه على بصيرة فإن الداعي على بصيرة لا بد أن يكون آمرا في حق طائفة و صادعا بالأمر في حق طائفة فيعلم من يتأثر لأمره ممن لا يتأثر ففائدة هذا الذكر تنوير البصائر و كمال الدعوة إلى اللّٰه و هي مدرجة الرسل عليه السّلام و الكمل من الورثة في الدعاء فتجد كلامهم كأنه القرآن جديدا لا يبلى فيفتح للمؤمن به المعاني دائما



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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