الفتوحات المكية

رقم السفر من 37 : [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17]
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فإنهم إذا سموهم عرفوا بالاسم من هو المسمى فقال هؤلاء ﴿إِنَّ اللّٰهَ هُوَ الْمَسِيحُ﴾ [المائدة:17] و ليس المسيح من أسمائه إذ كان له هذا الاسم قبل أن يدعي فيه أنه اللّٰه فأشركوا من حيث الاسم و أشرك فرعون من حيث خالف عقده قوله فبهذا كانوا مشركين ثم ينتج له هذا الذكر أمرا عجيبا على الأوج مخبوءا في الدرج مرقوما في طي الدرج إذ سماهم اللّٰه مخلفين فإن كل مفارق أهله فالله خليفته في ذلك الأهل سواء استخلفه أم لم يستخلفه فكل من يقوم في أهله بعده فإنما ذلك نائب اللّٰه لا نائبه فهؤلاء الثلاثة الذين خلفوا : ما خلفهم الاسم الظاهر فإن الشرع دعاهم إلى الخروج و لكن اللّٰه ثبطهم فمنهم من ﴿كَرِهَ اللّٰهُ انْبِعٰاثَهُمْ فَثَبَّطَهُمْ﴾ [التوبة:46] و منهم من ثبطه لا عن كره فقاموا في أهليهم مقام حق فجعلهم اللّٰه خلفا في أهليهم عنه من الاسم الباطن على كره منهم فكان من أمرهم ما كان ف‌ ﴿تٰابَ اللّٰهُ عَلَيْهِمْ﴾ [المائدة:71] فتفاضلت توبتهم فكان منهم الكاذب في عذره فقبله منهم الكرم الإلهي و كان منهم الصادق و هو في الدار الدنيا فاذاقه اللّٰه مرارة الصدق هنا ليعلم ﴿مَنْ يَتَّبِعُ الرَّسُولَ مِمَّنْ يَنْقَلِبُ عَلىٰ عَقِبَيْهِ﴾ [البقرة:143] فإن الدنيا دار بلاء و رحم اللّٰه الجميع و رجع عليهم بالرحمة و لكن على التفاضل فيها و ما فعل ذلك و أخبرنا به إلا لنكون بتلك الصفة الإلهية مع عباده في معاملتهم إيانا فمن صدقنا رأينا له منزلة صدقه و من كذب لنا لم نفضحه و تغاضينا عن كذبه و أظهرنا له قبول قوله لأن قوله وجود فقبلناه و مدلوله عدم فلم نجد من يقبل فبقينا على البراءة الأصلية فإن المعدوم ليس بمنازع فمن كان هذا ذكره و لم يكن له هذا الخلق فما ذكره هذا الذكر قط ﴿وَ اللّٰهُ يَقُولُ الْحَقَّ وَ هُوَ يَهْدِي السَّبِيلَ﴾ [الأحزاب:4]

«الباب الثامن عشر و خمسمائة في معرفة حال قطب كان منزله



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