الفتوحات المكية

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الصفحة - من السفر
(وفق مخطوطة قونية)

و هو الذي في جميع الكون تدركه *** و ليس يدرك إلا من تجليه

إذا تدلى لعبد جاء يقصده *** أعطاه ما ليس يدري في تدليله

من كل خير و من علم و معرفة *** فمن يعادله أو من يدانيه

[الحكمة و هو الخير الكثير]

اعلم أيدنا اللّٰه و إياك بروح منه أن الخير في هذا المنظوم يريد به الحكمة و هو الخير الكثير و العلم ما يدركه من التركيب و المعرفة ما يدركه في المفردات هذه آية جاءت إلينا يوم جمعة بعد الصلاة في المقابر بإشبيلية سنة ست و ثمانين و خمسمائة فبقيت فيها سكران مالي تلاوة في صلاة و لا يقظة و لا نوم إلا بها ثلاث سنين متوالية أجد لها حلاوة و لذة لا يقدر قدرها و هي من الأذكار المفرقة بين اللّٰه و بين الخلق تفريق تمييز فهو تفريق في جمع و فرقان في قرآن فيجمع بهذا الذكر بين القرآن و الفرقان فكل من له عليك ولادة من أي نوع و في أي صورة كان من ظاهر و باطن و اسم إلهي و كياني فهو أبوك و كل من لك عليه ولادة من أي نوع كان و في أي صورة كان من ظاهر و باطن و اسم إلهي و كياني فهو ابنك فقد يكون ابنك في هذا الذكر عين أبيك فيكون له عليك ولادة و لك عليه ولادة و هو المقام الذي أشار إليه الحلاج بقوله

ولدت أمي أباها *** إن ذا من عجباتي

و كل ما قابلك من الأمثال و داخلك من الأشباه و مازجك أو قارب من الأنداد و كان عديلا لك في الوراثة بحيث لو وزنتما في العلم الموروث من الكتاب ما رجح عليك وزنا و لا رجحت عليه فهو أخوك و لكن من الاسم الظاهر فأبوكما واحد ظاهرا لا غير و ليس للاسم الباطن هنا حكم فإن الباطن يمنع أن تكونا أخوين لأب واحد و أم واحدة فإن المزاج الواحد لا يجمع اثنين في الكون و التجلي لا يكون عنه اثنان فإن الأمر أوسع من ذلك فكل واحد له واحد من أم و أب فالطبيعة لا تلد توأمين و الوالد لا يلقي في كل نكاح ماءين كما لا يكون في العالم لواحد في زمن واحد شأنان و كل من ثناك وجوده و انفعل لك فيما تريده و كنت فيه خلاقا و إليه إذا غاب عنك مشتاقا و جمعتكما الرحمة الواحدة و المودة الثابتة و سكنت إليك و سكن إليك و أعطاك من نفسه التحكم فيه و ظهر فيه اقتدارك فهو زوجك تحبه طبعا و تتحد به و يكون ملكا لك شرعا و كل ما تعتضد به في أمورك من الأسماء الإلهية و التجلي و الكون من أرواح قدسية و عقول ندسية تؤيدك في الشدائد و تأتيك بالتحف و الزوائد فهو عشيرتك و كل من تميل إليه فيميل إليك لميلك و يحضره ديوان نيلك و يقف عند فعلك فيه و قولك و يتحكم فيه سلطان طولك و تصل في اقتنائه نهارك بليلك فذلك هو مالك الذي اقترفته من الأموال الظاهرة و الباطنة و المعنوية و المحسوسة من ثابت كالعقار و من غير ثابت كالعروض و الدرهم و الدينار و كل منقول لا يقربه قرار فالثابت كالمقام و غير الثابت كالحال و كله مال لأنه مال و إليه المال بعد الرحلة عنه و الانفصال و لكن إذا آل إليه أمرك رأيته في غير الصورة التي عليها فارقته و كل أمر تطلب الخروج عنه ليكون ذلك الخروج سببا لتحصيل ما يكون عندك أنفس منه فتطلب به النفاق في الأسواق و يقوم لك فيه الجمع بين التلاق و الفراق و النكاح و الطلاق ظاهرا و باطنا فذلك التجارة التي تخشى كسادها و تخاف فسادها فاستبطنت مهادها و استوطأت قتادها و أعددت لها إعدادها و حصلت لها إن كنت تاجر سفر زادها لتنجيك من عذاب أليم و توفيك الربح و الحق الجسيم و كل من اتخذته محلا و كنت به محلي و جعلته حرما لك و حلا فذلك مسكنك الذي ترضاه و منزلك الذي تقصده و تتوخاه فقال لك الحق فيما أنزله إليك و وفد به رسوله الأمين عليك إذا لم تر وجه الحق في كل ما ذكرته و تعشقت به لعينه و تعرف أنه من عنده ما هو عينه و آثرته مع هذا الحجاب على ما دعاك الحق إليه من الزهد فيه إذا فقدت فيه وجه الحق فتعلم إن اللّٰه ما أراد منك إلا أن تعرفه فيما أمرك بالزهد فيه و الرغبة عنه و أحببته حب عين و صورة كون و كان أحب إليك من اللّٰه الجامع للرغبة فيه و الرغبة عنه فإنه المعطي المانع و الضار النافع و أحب إليك من رسوله الوافد عليك المعرف بما هو حجاب عن المقصود و ستر بين العابد و المعبود مع علمك بما أعلمك أنه ما خلقك إلا لتعبده و تؤثره على ما تراه فيه و تقصده و أحب إليك من جهادك في سبيل اللّٰه الذي يجمع لك بين الحياتين فلا تعرف للموت طعما و لا للحصر حكما ﴿فَتَرَبَّصُوا﴾ [التوبة:24]



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