الفتوحات المكية

رقم السفر من 37 : [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17]
[18] [19] [20] [21] [22] [23] [24] [25] [26] [27] [28] [29] [30] [31] [32] [33] [34] [35] [36] [37]

الصفحة - من السفر وفق مخطوطة قونية (المقابل في الطبعة الميمنية)

  الصفحة السابقة

المحتويات

الصفحة التالية  
futmak.com - الفتوحات المكية - الصفحة 9000 - من السفر  من مخطوطة قونية

الصفحة - من السفر
(وفق مخطوطة قونية)

ففرض له البقاء و البقاء ليس إلا لله أو لما كان عند اللّٰه و ما ثم إلا اللّٰه أو ما هو عنده فخزائنه غير نافدة فليس إلا صور تعقب صورا و العلم بها يسترسل عليها استرسالا بقوله ﴿حَتّٰى نَعْلَمَ﴾ [محمد:31] مع علمه بها قبل تفصيلها فلو علمها مفصلة في حال إجمالها ما علمها فإنها مجملة و العلم لا يكون علما حتى يكون تعلقه بما هو المعلوم عليه فإن المعلوم هو الذي يعطيه بذاته العلم و المعلوم هنا غير مفصل فلا يعلمه إلا غير مفصل إلا أنه يعلم التفصيل في الإجمال و مثل هذا إلا يدل على أن المجمل مفصل إنما يدل على أنه يقبل التفصيل إذا فصل بالفعل هذا معنى حتى نعلم و إذا كان الأمر كما ذكرناه فما ثم من دساها و لو كان ثم لكان هو الموصوف بالخيبة لأن الشيء لا يمكن أن ينجعل و لا يندس في غير قابل لاندساسه و إذا دسه فقد قبله ذلك القابل و إذا قبله فما تعدى ذلك المدسوس رتبته لأنه حل في موضعه و استقر في مكانه فما خاب من دسه الخيبة المفهومة من الحرمان فله العلم و ما له نيل الغرض فحرمانه عدم نيل غرضه فإن العلم ما هو محبوب لكل أحد و لو كان العلم محبوبا لكل أحد ما قال من قال إن العلم حجاب و الحجاب عن الخير تنفر منه الطباع و نحن إذا قلنا العلم حجاب فإنما نعني به يحجب عن الجهل فإن الوجود و العدم لا يجتمعان أعني النفي و الإثبات فما يخيب إلا أصحاب الأغراض و هم الأشقياء فمن لا غرض له لا خيبة له و أنت تعلم أنه إذا دس شيء في شيء إن لم يسعه فلا يندس فيه و إن اندس فقد وسعه و لا يسعه إلا ما هو له فلكل دار أهل و ما ثم في الآخرة إلا داران جنة و لها أهل و هم الموحدون بأي وجه و حدوا و هم الذين زكوا نفوسهم و الدار الثانية النار و لها أهل و هم الذين لم يوحدوا اللّٰه و هم الداسون أنفسهم فخابوا لا بالنظر إلى دارهم و لكن بالنظر إلى الدار الأخرى فكما أنه لم يتعد أحد هنا ما قدر له و ما أعطته نشأته الخاصة به كذلك لم يتعد هنالك ما قدر له موطنه الذي هو معين لذلك الذي قدر له فمن خلق للنعيم فسييسره لليسرى ﴿فَأَمّٰا مَنْ أَعْطىٰ وَ اتَّقىٰ وَ صَدَّقَ بِالْحُسْنىٰ فَسَنُيَسِّرُهُ لِلْيُسْرىٰ﴾ و من خلق للجحيم فسييسره للعسرى ﴿وَ أَمّٰا مَنْ بَخِلَ﴾ [الليل:8] بنفسه على ربه حيث طلب منه قلبه ليتخذه بيتا له بالإيمان أو التوحيد ﴿وَ اسْتَغْنىٰ﴾ [التغابن:6] بنفسه عن ربه في زعمه ﴿وَ كَذَّبَ بِالْحُسْنىٰ﴾ [الليل:9] و هي أحكام الأسماء الحسنى



هذه نسخة نصية حديثة موزعة بشكل تقريبي وفق ترتيب صفحات مخطوطة قونية
  الصفحة السابقة

المحتويات

الصفحة التالية  
  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

ترقيم الصفحات موافق لمخطوطة قونية (من 37 سفر) بخط الشيخ محي الدين ابن العربي - العمل جار على إكمال هذه النسخة.
(المقابل في الطبعة الميمنية)

 
الوصول السريع إلى [الأبواب]: -
[0] [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17] [18] [19] [20] [21] [22] [23] [24] [25] [26] [27] [28] [29] [30] [31] [32] [33] [34] [35] [36] [37] [38] [39] [40] [41] [42] [43] [44] [45] [46] [47] [48] [49] [50] [51] [52] [53] [54] [55] [56] [57] [58] [59] [60] [61] [62] [63] [64] [65] [66] [67] [68] [69] [70] [71] [72] [73] [74] [75] [76] [77] [78] [79] [80] [81] [82] [83] [84] [85] [86] [87] [88] [89] [90] [91] [92] [93] [94] [95] [96] [97] [98] [99] [100] [101] [102] [103] [104] [105] [106] [107] [108] [109] [110] [111] [112] [113] [114] [115] [116] [117] [118] [119] [120] [121] [122] [123] [124] [125] [126] [127] [128] [129] [130] [131] [132] [133] [134] [135] [136] [137] [138] [139] [140] [141] [142] [143] [144] [145] [146] [147] [148] [149] [150] [151] [152] [153] [154] [155] [156] [157] [158] [159] [160] [161] [162] [163] [164] [165] [166] [167] [168] [169] [170] [171] [172] [173] [174] [175] [176] [177] [178] [179] [180] [181] [182] [183] [184] [185] [186] [187] [188] [189] [190] [191] [192] [193] [194] [195] [196] [197] [198] [199] [200] [201] [202] [203] [204] [205] [206] [207] [208] [209] [210] [211] [212] [213] [214] [215] [216] [217] [218] [219] [220] [221] [222] [223] [224] [225] [226] [227] [228] [229] [230] [231] [232] [233] [234] [235] [236] [237] [238] [239] [240] [241] [242] [243] [244] [245] [246] [247] [248] [249] [250] [251] [252] [253] [254] [255] [256] [257] [258] [259] [260] [261] [262] [263] [264] [265] [266] [267] [268] [269] [270] [271] [272] [273] [274] [275] [276] [277] [278] [279] [280] [281] [282] [283] [284] [285] [286] [287] [288] [289] [290] [291] [292] [293] [294] [295] [296] [297] [298] [299] [300] [301] [302] [303] [304] [305] [306] [307] [308] [309] [310] [311] [312] [313] [314] [315] [316] [317] [318] [319] [320] [321] [322] [323] [324] [325] [326] [327] [328] [329] [330] [331] [332] [333] [334] [335] [336] [337] [338] [339] [340] [341] [342] [343] [344] [345] [346] [347] [348] [349] [350] [351] [352] [353] [354] [355] [356] [357] [358] [359] [360] [361] [362] [363] [364] [365] [366] [367] [368] [369] [370] [371] [372] [373] [374] [375] [376] [377] [378] [379] [380] [381] [382] [383] [384] [385] [386] [387] [388] [389] [390] [391] [392] [393] [394] [395] [396] [397] [398] [399] [400] [401] [402] [403] [404] [405] [406] [407] [408] [409] [410] [411] [412] [413] [414] [415] [416] [417] [418] [419] [420] [421] [422] [423] [424] [425] [426] [427] [428] [429] [430] [431] [432] [433] [434] [435] [436] [437] [438] [439] [440] [441] [442] [443] [444] [445] [446] [447] [448] [449] [450] [451] [452] [453] [454] [455] [456] [457] [458] [459] [460] [461] [462] [463] [464] [465] [466] [467] [468] [469] [470] [471] [472] [473] [474] [475] [476] [477] [478] [479] [480] [481] [482] [483] [484] [485] [486] [487] [488] [489] [490] [491] [492] [493] [494] [495] [496] [497] [498] [499] [500] [501] [502] [503] [504] [505] [506] [507] [508] [509] [510] [511] [512] [513] [514] [515] [516] [517] [518] [519] [520] [521] [522] [523] [524] [525] [526] [527] [528] [529] [530] [531] [532] [533] [534] [535] [536] [537] [538] [539] [540] [541] [542] [543] [544] [545] [546] [547] [548] [549] [550] [551] [552] [553] [554] [555] [556] [557] [558] [559] [560]


يرجى ملاحظة أن بعض المحتويات تتم ترجمتها بشكل شبه تلقائي!