الفتوحات المكية

رقم السفر من 37 : [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17]
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الصفحة - من السفر
(وفق مخطوطة قونية)

لو لا الوجود لما كان الشهود لنا *** و في الوجود لنا ربح و خسران

و ليس يدري الذي جئنا به أحد *** الا عليم بما في الأمر حيران

[إن العبد إذا عمل في عمله عبادة يرى ربه بما استحضره في تلك العبادة على قدر علمه]

قال رسول اللّٰه ﷺ في الإحسان إنه العمل على رؤية الحق في العبادة و هو تنبيه عجيب من عالم شفيق على أمته لأنه علم أنه إذا قام العبد في عمله عبادة و جعل في نفسه أنه يرى ربه و يراه ربه بما استحضره في تلك العبادة على قدر علمه فإنه إذا كان هذا هجيره و ديدنه ذلك أبصر أن العامل هو اللّٰه لا هو و أن العبد محل ظهور ذلك العمل كما ورد أن اللّٰه قال على لسان عبده سمع اللّٰه لمن حمده فالإحسان في العبادة كالروح في الصورة يحييها و إذا أحياها لم تزل تستغفر لصاحبها و لها البقاء الدائم فلا يزال مغفورا له فإن اللّٰه صادق و قد أخبر أنه لا يضيع ﴿أَجْرَ مَنْ أَحْسَنَ عَمَلاً﴾ [الكهف:30] بل لا يضيع ﴿عَمَلَ عٰامِلٍ مِنْكُمْ مِنْ ذَكَرٍ أَوْ أُنْثىٰ بَعْضُكُمْ مِنْ بَعْضٍ﴾ [آل عمران:195] كان العمل ما كان فإن كان خيرا فلا يضيع أجره و إن لم يكن خيرا فإن اللّٰه لا يضيعه لأنه لا بد أن يبدل اللّٰه سيئات التائب حسنات : فإن لم يكن العمل غير مضيع و إلا ففي أي أمر يقع التبديل لأن الأعمال صور أنشأها العامل لا بل أنشأها اللّٰه فإنه العامل و العبد محل ظهور ذلك العمل كالهيولى لما يقبله من فتح الصور فيها ثم إن الحضور مع اللّٰه تعالى و هو الإحسان في ذلك العمل حياة ذلك العمل و به سمي عبادة و لو لا هذا الحضور ما كان عبادة فما من مؤمن يعصي إلا و في نفسه ذل المعصية فلذلك يصير عبادة و لو لم يكن إلا علمه بأنها معصية و أي روح أشرف من العلم كما قال اللّٰه عن نفسه إنه ﴿أَحٰاطَ بِكُلِّ شَيْءٍ عِلْماً﴾ [الطلاق:12]



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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