الفتوحات المكية

رقم السفر من 37 : [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17]
[18] [19] [20] [21] [22] [23] [24] [25] [26] [27] [28] [29] [30] [31] [32] [33] [34] [35] [36] [37]

الصفحة - من السفر وفق مخطوطة قونية (المقابل في الطبعة الميمنية)

  الصفحة السابقة

المحتويات

الصفحة التالية  
futmak.com - الفتوحات المكية - الصفحة 8969 - من السفر  من مخطوطة قونية

الصفحة - من السفر
(وفق مخطوطة قونية)

و موجب الفرح المناسبة و لما علمنا إن الإنسان مجموع ما عند اللّٰه علمنا أنه ما عند اللّٰه أمر إلا و له إليه نسبة فله منه مناسب فالعالم لا يرمي بشيء من الوجود و إنما يبرز إليه ما يناسبه منه و لا يغلب عليه حال من الأحوال بل هو مع كل حال بما يناسبه كما هو اللّٰه معنا أينما كنا : فإن ﴿أَكْثَرَ النّٰاسِ لاٰ يَعْلَمُونَ﴾ [الأعراف:187] ذلك بل هم بهذا القدر جاهلون و عنه عمون و هذا هو الذي أداهم إلى ذم الدنيا و ما فيها و الزهد في الآخرة و في الكونين و في كل ما سوى اللّٰه و انتقدوا على من شغل نفسه بمسمى هذه كلها و جعلهم في ذلك ما حكي عن الأكابر في هذا النوع و حملوا ألفاظهم على غير وجه ما تعطيه الحقيقة و رأوا أن كل ما سوى اللّٰه حجاب عن اللّٰه فأرادوا هتك هذا الحجاب فلم يقدروا عليه إلا بالزهد فيه و سأبين هذا الفن في هذا الباب بيانا شافيا و كون الحق كل يوم في شأن الخلق و كون الجنة و هي دار القربة و محل الرؤية هي دار الشهوات و عموم اللذات و لو كانت حجابا لكان الزهد و الحجاب فيها و كذلك الدار الدنيا فأقول إن اللّٰه خلق أجناس الخلق و أنواعه و ما أبرز من أشخاصه لننظر فيه نظرا يوصلنا إلى العلم بخالقه فما خلقه لنزهد فيه فوجب علينا الانكباب عليه و المثابرة و المحبة فيه لأنه طريق النظر الموصل إلى الحق فمن زهد في الدليل فقد زهد في المدلول و ﴿خَسِرَ الدُّنْيٰا وَ الْآخِرَةَ ذٰلِكَ هُوَ الْخُسْرٰانُ الْمُبِينُ﴾ [الحج:11] و جهل حكمة اللّٰه في العالم و جهل الحق و كان من الخاسرين الذين ﴿فَمٰا رَبِحَتْ تِجٰارَتُهُمْ وَ مٰا كٰانُوا مُهْتَدِينَ﴾ [البقرة:16] فالرجل كل الرجل من ظهر بصورة الحق في عبودة محضة فأعطى كل ذي حق حقه و يبدأ بحق نفسه فإنها أقرب إليه من كل من توجه له عليه حق من المخلوقين و حق اللّٰه أحق بالقضاء و حق اللّٰه عليه إيصال كل حق إلى من يستحقه و ﴿لِمِثْلِ هٰذٰا فَلْيَعْمَلِ الْعٰامِلُونَ﴾ [الصافات:61] إذ و لا بد من إضافة العمل إلينا فإن اللّٰه أضاف الأعمال إلينا و عين لنا محالها و أمكنتها و أزمنتها و أحوالها و أمرنا بها وجوبا و ندبا و تخييرا كما أنه نهانا عزَّ وجلَّ عن أعمال معينة عين لنا محالها و أماكنها و أزمانها و أحوالها تحريما و تنزيها و جعل لذلك كله جزاء بحساب و بغير حساب من أمور ملذة و أمور مؤلمة دنيا و آخرة و خلقنا و خلق فينا من يطلب الجزاء الملذ و ينفر بالطبع عن الجزاء المؤلم و جعل لي و علي حقا في رعيتى إذ خلق لي نفسا ناطقة مدبرة عاقلة مفكرة مستعدة لقبول جميع ما كلفها به و هي محل خطابه المقصودة بتكليفه و امتثال أوامره و نواهيه و الوقوف عند حدوده و مراسمه حيث حد لها و رسم في حق الحق و حق نفسه و حق غيره فيطلبه أصحاب الحقوق بحقوقهم نطقا و حالا ظاهرا و باطنا فيطلبه السمع بحقه و البصر و اللسان و اليدان و البطن و الفرج و القدمان و القلب و العقل و الفكر و النفس النباتية و الحيوانية و الغصبية و الشهوانية و الحرص و الأمل و الخوف و الرجاء و الإسلام و الايمان و الإحسان و أمثال هؤلاء من عالمه المتصل به و أمره الحق أن لا يغفل عن أحد من هؤلاء أولا و يصرفهم في المواطن التي عين له الحق و جعل هذه القوي كلها متوجهة على هذه النفس الناطقة بطلب حقوقها و جعلها كلها ناطقة بتسبيح اللّٰه تعالى جعلا ذاتيا لا تنفك عنه و جعل هذه الحقوق التي توجهت لها على النفس الناطقة الحاكمة على الجماعة ثابتة الحق جزاء لما هي عليه من تسبيح اللّٰه بحمده دنيا و آخرة و ما منهم من يخالف أمر اللّٰه اختيارا و إنه إذا وقعت المخالفة منهم فجبرا يجبرهم على ذلك الوالي عليهم الذي أمروا بالسمع و الطاعة له فإن جار فلهم و عليه و إن عدل فلهم و له و لم يعط اللّٰه هؤلاء الرعايا الذين ذكرناهم المتصلين به قوة الامتناع مما يجبرهم على فعله بخلاف ما خرج عنهم ممن له أمر فيهم ثم إن اللّٰه نعت لهم الجزاء الحسي و أشهدهم إياه في الحياة الدنيا بضرب مثال من نعيم الحياة الدنيا و بالوعد بذلك في الآخرة و منهم من أشهده ذلك في الأخرى و هو في الحياة الدنيا مشاهدة عين فرأى ما وقع له برؤيته من الالتذاذ ما لا يقدر قدره و ما التذ به إلا من يطلب ذلك من رعيته فأخذ يسأله حقه من ذلك و أن لا يمنعه و في مثل هذا



هذه نسخة نصية حديثة موزعة بشكل تقريبي وفق ترتيب صفحات مخطوطة قونية
  الصفحة السابقة

المحتويات

الصفحة التالية  
  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

ترقيم الصفحات موافق لمخطوطة قونية (من 37 سفر) بخط الشيخ محي الدين ابن العربي - العمل جار على إكمال هذه النسخة.
(المقابل في الطبعة الميمنية)

 
الوصول السريع إلى [الأبواب]: -
[0] [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17] [18] [19] [20] [21] [22] [23] [24] [25] [26] [27] [28] [29] [30] [31] [32] [33] [34] [35] [36] [37] [38] [39] [40] [41] [42] [43] [44] [45] [46] [47] [48] [49] [50] [51] [52] [53] [54] [55] [56] [57] [58] [59] [60] [61] [62] [63] [64] [65] [66] [67] [68] [69] [70] [71] [72] [73] [74] [75] [76] [77] [78] [79] [80] [81] [82] [83] [84] [85] [86] [87] [88] [89] [90] [91] [92] [93] [94] [95] [96] [97] [98] [99] [100] [101] [102] [103] [104] [105] [106] [107] [108] [109] [110] [111] [112] [113] [114] [115] [116] [117] [118] [119] [120] [121] [122] [123] [124] [125] [126] [127] [128] [129] [130] [131] [132] [133] [134] [135] [136] [137] [138] [139] [140] [141] [142] [143] [144] [145] [146] [147] [148] [149] [150] [151] [152] [153] [154] [155] [156] [157] [158] [159] [160] [161] [162] [163] [164] [165] [166] [167] [168] [169] [170] [171] [172] [173] [174] [175] [176] [177] [178] [179] [180] [181] [182] [183] [184] [185] [186] [187] [188] [189] [190] [191] [192] [193] [194] [195] [196] [197] [198] [199] [200] [201] [202] [203] [204] [205] [206] [207] [208] [209] [210] [211] [212] [213] [214] [215] [216] [217] [218] [219] [220] [221] [222] [223] [224] [225] [226] [227] [228] [229] [230] [231] [232] [233] [234] [235] [236] [237] [238] [239] [240] [241] [242] [243] [244] [245] [246] [247] [248] [249] [250] [251] [252] [253] [254] [255] [256] [257] [258] [259] [260] [261] [262] [263] [264] [265] [266] [267] [268] [269] [270] [271] [272] [273] [274] [275] [276] [277] [278] [279] [280] [281] [282] [283] [284] [285] [286] [287] [288] [289] [290] [291] [292] [293] [294] [295] [296] [297] [298] [299] [300] [301] [302] [303] [304] [305] [306] [307] [308] [309] [310] [311] [312] [313] [314] [315] [316] [317] [318] [319] [320] [321] [322] [323] [324] [325] [326] [327] [328] [329] [330] [331] [332] [333] [334] [335] [336] [337] [338] [339] [340] [341] [342] [343] [344] [345] [346] [347] [348] [349] [350] [351] [352] [353] [354] [355] [356] [357] [358] [359] [360] [361] [362] [363] [364] [365] [366] [367] [368] [369] [370] [371] [372] [373] [374] [375] [376] [377] [378] [379] [380] [381] [382] [383] [384] [385] [386] [387] [388] [389] [390] [391] [392] [393] [394] [395] [396] [397] [398] [399] [400] [401] [402] [403] [404] [405] [406] [407] [408] [409] [410] [411] [412] [413] [414] [415] [416] [417] [418] [419] [420] [421] [422] [423] [424] [425] [426] [427] [428] [429] [430] [431] [432] [433] [434] [435] [436] [437] [438] [439] [440] [441] [442] [443] [444] [445] [446] [447] [448] [449] [450] [451] [452] [453] [454] [455] [456] [457] [458] [459] [460] [461] [462] [463] [464] [465] [466] [467] [468] [469] [470] [471] [472] [473] [474] [475] [476] [477] [478] [479] [480] [481] [482] [483] [484] [485] [486] [487] [488] [489] [490] [491] [492] [493] [494] [495] [496] [497] [498] [499] [500] [501] [502] [503] [504] [505] [506] [507] [508] [509] [510] [511] [512] [513] [514] [515] [516] [517] [518] [519] [520] [521] [522] [523] [524] [525] [526] [527] [528] [529] [530] [531] [532] [533] [534] [535] [536] [537] [538] [539] [540] [541] [542] [543] [544] [545] [546] [547] [548] [549] [550] [551] [552] [553] [554] [555] [556] [557] [558] [559] [560]


يرجى ملاحظة أن بعض المحتويات تتم ترجمتها بشكل شبه تلقائي!