الفتوحات المكية

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﴿وَ أُفَوِّضُ أَمْرِي إِلَى اللّٰهِ﴾ [غافر:44] و ينسب ذلك الأمر إلى نفسه لأنه لما جاءه ما تخيل أنه يفضل عنه و تخيل أنه يقبله كله فلما لم يسعه بذاته رده إلى ربه و منهم من لم يعرف ذلك فرجع الفائض إلى اللّٰه من غير علم من هذا الذي حصل منه ما حصل فهو إلى اللّٰه على كل وجه و ما بقي الفضل إلا فيمن يعلم ذلك فيفوض أمره إلى اللّٰه فيكون له بذلك عند اللّٰه يد و منهم من لا يعلم ذلك فليس له عند اللّٰه بذلك منزلة و لا حق بتوجه قال تعالى ﴿قُلْ هَلْ يَسْتَوِي الَّذِينَ يَعْلَمُونَ وَ الَّذِينَ لاٰ يَعْلَمُونَ إِنَّمٰا يَتَذَكَّرُ أُولُوا الْأَلْبٰابِ﴾ [الزمر:9]

[فإن العبد محل لظهور أثر كل اسم إلهي الذي قابل أن تحمله]

و اعلم أن العبد القابل أمر اللّٰه لا يقبله إلا باسم خاص إلهي و أن ذلك الاسم لا يتعدى حقيقته فهذا العبد ما قبل الأمر إلا بالله من حيث ذلك الاسم فما عجز العبد و لا ضاق عن حمله فإنه محل لظهور أثر كل اسم إلهي فعن الاسم الإلهي فاض لا عن العبد فلما فوضه بقوله ﴿وَ أُفَوِّضُ أَمْرِي إِلَى اللّٰهِ﴾ [غافر:44] ما عين اسما بعينه و إنما فوضه إلى الاسم الجامع فيتلقاه منه ما يناسب ذلك الأمر من الأسماء في خلق آخر فإنه ما لا يحمله زيد و ضاق عنه لكون الاسم الإلهي الذي قبله به ما أعطت حقيقته إلا ما قبل منه و قد يحمله عمر و لأنه أوسع من زيد بل لا أنه أوسع من زيد و لكن عمرو في حكم اسم أيضا إلهي قد يكون أوسع إحاطة من الاسم الإلهي الذي كان عند زيد فإن الأسماء الإلهية تتفاضل في العموم و الإحاطات فيحيط العالم و يحيط العليم فيكون إحاطة العليم أكثر من إحاطة العالم و إحاطة الخبير أكثر من إحاطة غيره و كذلك الاسم المريد مع العالم و الاسم القادر مع المريد و مع العالم تقل إحاطته عنهما و العبد لا بد أن يكون تحت حكم اسم إلهي فهو بحسب ذلك الاسم و ما تعطيه حقيقته من القبول فيرد ما فضل عنه إليه تعالى و ذلك التفويض لمن عقل عن اللّٰه قوله فإن اللسان الذي خاطبنا به الحق اقتضى ذلك فنحن معه بقوله لأنه ليس في وسع المخلوق أن يحكم على الخالق إلا من يكون شهوده ما هي الممكنات عليه في حال عدمها فيرى أنها أعطت العلم للعالم بنفسها فقد يشم من ذلك رائحة من الحكم لكن افتقارها من حيث إمكانها يغلب عليها و لهذا ترى النافين للإمكان بالدلالة العقلية يغفلون في أكثر الحالات عما أعطاهم الدليل من نفي الإمكان في نفس الأمر فيقولون بالإمكان حتى يراجعوا و ينبهوا فيتذكروا ذلك فلا بد من أمر يكون له سلطنة في هذا العبد حتى يتصف بالغفلة و الذهول عما اقتضاه دليله و ليس إلا الأمر الطبيعي و المزاج أ لا تراه إذا انتقل بالموت الأكبر أو بالموت الأصغر إلى البرزخ كيف يرى في الموت الأصغر أمورا كان يحيلها عقلا في حال اليقظة و هي له في البرزخ محسوسة كما هي له في حال اليقظة ما يتعلق به حسه فلا ينكره فيما كان يدل عليه عقله من إحالة وجود أمر ما يراه موجودا في البرزخ و لا شك أنه أمر وجودي تعلق الحس به في البرزخ فاختلف الموطن على الحس فاختلف الحكم فلو كان ذلك محالا لنفسه في قبول الوجود لما اتصف بالوجود في البرزخ و لما كان مدركا بالحس في البرزخ بل قد يتحقق بذلك أهل اللّٰه حتى يدركوا ذلك في حال يقظتهم و لكن في البرزخ فهم في حال يقظتهم كحال النائم و الميت في حال نومه و موته فإن تفطنت فقد رميت بك على طريق العلم بقصور النظر العقلي و إنه ما أحاط بمراتب الموجودات و لا علم الوجود كيف هو إذ لو كان كما حكم به العقل ما ظهر له وجود في مرتبة من المراتب و قد ظهر فليس لعاقل ثقة بما دله عليه عقله في كل شيء فإذا كان صحيح الدلالة سرى ذلك في كل صورة فيعلم في كل صورة يراها في البرزخ و تحصل في نفسه أنه اللّٰه فهو اللّٰه فما يختلف كونه و إن اختلفت صور تجليه و كذلك عند العارفين به هنا ما يختل عليهم شيء من ذلك و لا في البرزخ و لا في القيامة الكبرى فيشهدون ربهم في كل صورة من أدنى و أعلى و كما هم اليوم كذلك يكونون غدا و أما أبو يزيد فخرج عن مقام التفويض فعلمنا أنه كان تحت حكم الاسم الواسع فما فاض عنه شيء و ذلك أنه تحقق



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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