الفتوحات المكية

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و لكن لا نفقة تسبيحه و قال ﴿وَ مٰا خَلَقْتُ الْجِنَّ وَ الْإِنْسَ إِلاّٰ لِيَعْبُدُونِ﴾ [الذاريات:56] فخلق العالم لعبادته فهؤلاء إذا ذكروا اللّٰه ذكروه من حيث إن اللّٰه شرع لهم كيف يذكرونه و لا يعلمون ما تحت ذلك الذكر المشروع عند اللّٰه و إن علموه في اللسان فينتج لهم هذا الذكر لما ذا شرعه الحق في العالم بهذا القول الخاص دون غيره أي ذكر كان و القسم الآخر يعتقد أن العالم ما اكتسب من الحق إلا الوجود و ليس الوجود غير الحق فما أكسيهم سوى هويته فهو الوجود بصور الممكنات و ما يذكره إلا موجود و ما ثم إلا هو فما شرع الذكر إلا لنفسه لا لغيره فإن الغير ما هو ثم و هو عالم بما شرع فيفتح لصورة الممكن ما ذكرناه كشفا هذا الذكر و هو قولهم لا يذكر اللّٰه إلا اللّٰه و لا يرى اللّٰه إلا اللّٰه فالمفيد و المستفيد عين واحدة فهو ذاكر من حيث إنه قابل و هو مذكور من حيث إنه عين مقصودة بالذكر و العالم على أصله في العدم و الحكم له فيما ظهر من وجود الحق فما ثم إلا الحق مجملا و مفصلا لأن المحدث إذا قرنته بالقديم لم يبق له أثر و إن بقي له عين فإن العين بلا أثر ما هي معتبرة و لهذا قلنا فيمن دل على معرفة الواجب لنفسه لا يتمكن له أن يثبت له أثرا حتى يعلم أن هذه الآثار الكائنة في العالم تحتاج إلى مستند لإمكانها فعند ذلك يقوم لهم البرهان على استنادها لواجب الوجود لنفسه و ذلك كمال العلم فإن الكمال للمرتبة أي بالمرتبة و التمام بما ترجع إليه في نفسها أعني التام فينتج لهذا القسم هذا الذكر ما قررناه من أنه يستحيل أن يذكره إلا هو أو يسمع ذكره إلا هو أو يكون المذكور إلا هو و من ذكرت به فهو المذكور لا أنت ﴿هَلْ أَتىٰ عَلَى الْإِنْسٰانِ حِينٌ مِنَ الدَّهْرِ لَمْ يَكُنْ شَيْئاً مَذْكُوراً﴾ [الانسان:1]



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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