الفتوحات المكية

رقم السفر من 37 : [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17]
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فحضرته لا تحمل الغرباء لأنه وصل للرحم فهو أرحم الرحماء فقرابته مجهولة و الجاهلون بها منهم أنزلهم جهلهم منزلة الغرباء الذين لا نسب بينهم و بينه و هو سبحانه ما يعامل عبده إلا بما جاءه به لا يزيده عليه و هو قوله ﴿وَ ذٰلِكُمْ ظَنُّكُمُ﴾ [فصلت:23] فهو لهم في اعتقادهم جار جنب فهم قطعوا رحمهم فقطعهم اللّٰه فما أشرف العلم بالأنساب و لهذا كانت العرب تثابر على علم الأنساب حتى قال اللّٰه ما قلناه من إثبات النسب بالطريقين طريق أرفع نسبي و طريق الرحم شجنة من الرحمن و هو «قوله الولد سر أبيه» فكم بين رجل يأتي يوم القيامة عارفا بنسبه مدلا بقرابته متوسلا إلى الرحمن برحمه و بين من يأتي جاهلا بهذا كله يعتقد الأجنبية و بعد المناسبة و إن علم بالخبر فيكون عنده بمنزلة كون أبيه آدم منه و هو ابن آدم فيجعل هذا مثل ذلك فإن هذا النسب لا يعطي سعادة عنده و هو غالط بل يعطي و يعطي و لقد رأيت ذلك ذوقا بمكة في عمرة اعتمرتها عن أبينا آدم عليه السّلام فظهر لي ذلك في مبشرة رآها بعض الناس لنا و للجماعة التي أمرتهم في تلك الليلة بالاعتمار معي عن أبينا آدم رأى فيها من لتقريب الإلهي و فتح أبواب السماء و عروج تلك الجماعة و تلقاهم الملأ الأعلى بالتأهيل و السهل و الترحيب إلى أن بهت و ذهل مما رأى فإن رحم آدم منا رحم مقطوعة عند أكثر الناس من أهل اللّٰه فكيف حال العامة في ذلك و لقد وصلتها بحمد اللّٰه و وصلت بسببي و جرى فيها على سنني و كان عن توفيق إلهي لم أر لأحد في ذلك قد ما أمشي على أثره فيها فحمدت اللّٰه على الإنعام و ما اهتديت إلى ذلك إلا بالنسب الإلهي فإنه أبعد مناسبة و قد نفع و ذكر و ما تفطن الناس لقول اللّٰه تعالى في غير موضع ﴿يٰا بَنِي آدَمَ﴾ [الأعراف:26] ﴿يٰا بَنِي آدَمَ﴾ [الأعراف:26]



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