الفتوحات المكية

رقم السفر من 37 : [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17]
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قال اللّٰه تعالى ﴿فَاذْكُرُونِي أَذْكُرْكُمْ﴾ [البقرة:152] رأيت سائلا يسأل شخصا بوجه اللّٰه أو بحرمة اللّٰه عندك أعطني شيئا و معي عبد صالح يقال له مدور من أهل أسبجة ففتح الرجل صرة فيها قطع فضة صغار و كبار فأخذ يطلب على أصغر ما فيها من القطع فقال لي العبد الصالح أ تدري على ما يطلب قلت له قل قال على قيمته عند اللّٰه و قدره فكلما أخرج قطعة كبيرة يقول بلسان الحال ما تساوي مثل هذه عند اللّٰه فأخرج أصغر ما وجد فأعطاه إياها إلا أن اللّٰه وصف نفسه بالغيرة و علم من أكثر عباده أنهم يهبون جزيل المال و أنفسه في هوى نفوسهم و أغراضهم فإذا أعطى أكثرهم لله أعطى كسرة باردة و فلسا و ثوبا خلقا و أمثال هذا هذا هو الكثير و الأغلب فإذا كان يوم القيامة و أحضر اللّٰه ما أعطى العبد من أجله بينه و بين عبده حيث لا يراه أحد فأحضر ما أعطى لغير اللّٰه فيقول له يا عبدي أ ليست هذه نعمتي التي أنعمت بها عليك أين ما أعطيت لمن سألك بوجهي فيعين ذلك الشيء التافه الحقير و يقول له فأين ما أعطيت لهوى نفسك فيعين جزيل المال من ماله فيقول أ ما استحييت مني أن تقابلني بمثل هذا و أنت تعلم أنك ستقف بين يدي و سأقررك على ما كان منك فما أعظمها من خجلة ثم يقول له قد غفرت لك بدعوة ذلك السائل لفرحه بما أعطيته لكني قدر بيتها لك و قد محقت ما أعطيته لهوى نفسك فإن صدقتك أخذتها و ربيتها لك فيحضرها أمام الأشهاد و قد رجع الفلس أعظم من جبل أحد و ما أعطى لغير اللّٰه قد عاد ﴿هَبٰاءً مَنْثُوراً﴾ [الفرقان:23] قال اللّٰه تعالى ﴿يَمْحَقُ اللّٰهُ الرِّبٰا وَ يُرْبِي الصَّدَقٰاتِ﴾ [البقرة:276]



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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