الفتوحات المكية

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الصفحة - من السفر
(وفق مخطوطة قونية)

مع التنزه عن تشبيه خالقنا *** و قد حوته بما قد قاله الصور

قال اللّٰه عز و جل ﴿مٰا يُبَدَّلُ الْقَوْلُ لَدَيَّ﴾ [ق:29] و إن عارضته المشيئة و ما في النسب أعجب منها لاستصحاب لو لها و لو لها أثر ما لها أثر فهو حرف عجيب

[اختصاص آدم بالخلافة ليست إلا بالمشيئة]

اعلم أنه ما اختص آدم بالخلافة إلا بالمشيئة و لو شاء جعلها فيمن جعلها من خلقه قلنا لا يصح أن تكون إلا في مسمى الإنسان الكامل و لو جمعها في غير الإنسان من المخلوقات لكان ذلك الجامع عين الإنسان الكامل فهو الخليفة التي خلق عليها فإن قلت فالعالم كله إنسان كبير فكان يكفي قلنا سبيل فإنه لو كان هو عين الخليفة لم يكن ثم على من فلا بد من واحد جامع صور العالم و صورة الحق يكون لهذه الجمعية خليفة في العالم من أجل الاسم الظاهر يعبر عن ذلك الإمام بالإنسان الكبير القدر الجامع الصورتين فبعض العالم أكبر من بعض الإنسان لا بالمجموع فإنه في الإنسان الكامل ما ليس في الواحد الواحد من العالم فما هو بالمشيئة إلا في النوع الإنساني لكون هذا النوع فيه خلفاء ثم عم تأثيره في الجميع فيطلب من الحق أن يمده فيمده و هذا أثر في الصورة الحقية و يطلب أيضا الأمر في العالم فيمضي ثم إنه مؤثر فيه من العالم و من الحق فاختلط الأمر و التبس على أهل اللّٰه فطلب بعض العارفين الخروج من هذا الالتباس فاطلعه اللّٰه على صورة الأمر فرأى ما لا يمكن التلفظ به إلا لرسول قد عصم فكن أنت ذلك الطالب حتى ترى ما رأيت فتقول كما قلنا

ملكتني ملك كسرى إذ تملك كن *** كوني فكنت بكن ملكا و لم أكن

لكنني كنت كن و الكون مملكة *** و كل كون لكم فالكون لم يكن

و هو قوله ﴿وَ مٰا أَمْرُنٰا إِلاّٰ وٰاحِدَةٌ﴾ [القمر:50] ثم شبه الإمضاء بلمح ﴿اَلْبَصَرِ أَوْ هُوَ أَقْرَبُ﴾ [النحل:77]



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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