الفتوحات المكية

رقم السفر من 37 : [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17]
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و قوله ﴿سَنُرِيهِمْ آيٰاتِنٰا فِي الْآفٰاقِ﴾ [فصلت:53] يعني الدالة عليها في الآفاق ﴿وَ فِي أَنْفُسِهِمْ﴾ [فصلت:53] و هي مقيدة فلا بد أن يقيد مدلولها و إن دلت على إطلاقه فكونه مطلقا تقييد لأن التقييد تمييز فمعرفة العارفين به تعالى ليس من رؤية الآيات الخارجة و الداخلة فإنها تدل على مقيد في إطلاق أو إطلاق في مقيد و العارفون يرونه عين كل شيء المخلوق قال لمن أساء في حقه فقطع رحمه ﴿لاٰ تَثْرِيبَ عَلَيْكُمُ﴾ [يوسف:92] فالحق أولى بهذه الصفة لمن أساء في حقه بقطع رحمه فإنا لا نشك أن قاطع الرحم ما قطعها إلا بجهله و ما انقطعت الرحم فالرحم موصولة في نفس الأمر فهي موصولة عند العالم فمن جانبه موصولة و من جانب الجاهل بها مقطوعة و لما رجع الأمر كله لله مما وقعت فيه الدعاوي الكاذبة لم يدل رجوعها إلى اللّٰه تعالى على أمر لم يكن عليه اللّٰه بل هويته هي هي في حال الدعاوي في المشاركة و في حال رجوع الأمر إليه و المقام ليس إلا للتمييز و ما ثم إلا واحد فعمن يتميز فلا مقام بل هوية أحدية فيها صور مختلفة فزيد أحدي العين لو لم يكن في الوجود إلا هو لم يتميز عن شيء لأنه ما ثم إلا هو و لم يتميز عنه شيء لأنك ما فرضت موجود إلا هو خاصة و لا مقام له يتميز به عن غيره إذ لا غير هناك فإن يده متميزة عن رجله و رأسه متميز عن صدره و أذنه عن عينه و كل جارحة متميزة عن غيرها من الجوارح و كل قوة منه في باطنه لها حكم ليس للأخرى و محل ليس للآخر فتميزت الصور في عين واحدة لا تميز فيها و لا مقام لها فنحن له كالأعضاء للواحد منا و القوي فما ثم عمن نتميز و لا يتميز عنا و لكن تميزنا بعضنا عن بعض كما قررنا و لا تنسب الأحكام و المقامات لأعضائنا و إنما ينسب ذلك كله إلينا فيقال بطش فلان بفلان و مشى فلان إلى فلان و سمع فلان كلام فلان و رأى فلان فلانا ما ينسب شيء من هذا كله إلى آلة و لا إلى قوة و لا إلى عضو ف‌ ﴿إِلَيْهِ يُرْجَعُ الْأَمْرُ كُلُّهُ﴾ [هود:123] ف‌



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