الفتوحات المكية

رقم السفر من 37 : [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17]
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الصفحة - من السفر
(وفق مخطوطة قونية)

«وصل»الخضوع عند تجلى الحق و مناجاته هو المحمود

و ما سوى هذا فهو مذموم و يلحق الذم بمن ظهر عليه إلا من يرى الحق في الأشياء كلها من الوجه الإلهي الذي لها و لكن على ميزان محقق لا يتعداه فإن اللّٰه قد وضع له ميزانا عندنا في الأرض قال تعالى ﴿وَ السَّمٰاءَ رَفَعَهٰا وَ وَضَعَ الْمِيزٰانَ﴾ [الرحمن:7] فليصرفه بحسب وضع الحق فهو و إن شهده في كل شيء فما يريد تعالى أن يعامله بمعاملة واحدة في كل شيء بل يحمده في المواضع التي تطلب منه المحامد و يقبل عليه و يعرض عنه في المواضع التي يطلب منه الإعراض عنه فيها فلا يتعدى الميزان الذي يطلبه منه و هذا المشهد المكر فيه خفي و لا مزيل له إلا العلم بالميزان الإلهي المشروع فمن عرفه و وقف عنده و تأدب بآداب اللّٰه التي أدب بها رسله فقد فاز و حاز درجة العلم بالله قال تعالى معلما و مؤدبا لمن عظم صفة اللّٰه على غير ميزان ﴿عَبَسَ وَ تَوَلّٰى أَنْ جٰاءَهُ الْأَعْمىٰ وَ مٰا يُدْرِيكَ لَعَلَّهُ يَزَّكّٰى﴾ يعني ذلك الجبار و إن اللّٰه عند المنكسرة قلوبهم أصحاب العاهات غيبا و هو في الجبابرة المتكبرين ظاهر عينا و لظهور حكم أقوى و كان ﷺ حريصا على الناس أن يؤمنوا بوحدانية اللّٰه و إزالة العمي الذي كانوا عليه فلما جاء الأعمى في الظاهر البصير في الباطن فكان باطن الجبابرة ظاهر هذا الأعمى فحصل في النفس البشرية ما حصل و النبي ﷺ ليس له مشهود إلا صفة الحق حيث ظهرت من الأكوان فإذا رآها أعمل الحيلة في سلبها عن الكون الذي أخذها على غير ميزانها و ظهر بها في غير موطنها و هو ﷺ غيور فقيل له ﴿أَمّٰا مَنِ اسْتَغْنىٰ فَأَنْتَ لَهُ تَصَدّٰى﴾ يقول إنه لما شاهد صفة الحق و هي غناه عن العالم تصدى لها حرصا منه أن يزكى من ظهر بها عنده فقيل له ﴿مٰا عَلَيْكَ أَلاّٰ يَزَّكّٰى﴾ [عبس:7] و لك ما نويت و حكمه لو تزكي لما فاتك شيء سواء تزكي أو لم يتزك



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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