الفتوحات المكية

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فعلم ما قال و علمنا نحن من هذا القول ما أشار إليه به ليفهم عنه صاحب عين الفهم فهذا معنى التعاون و هو في قوله ﴿اِسْتَعِينُوا بِاللّٰهِ﴾ [الأعراف:128] و ﴿إِيّٰاكَ نَسْتَعِينُ﴾ [الفاتحة:5] و اللّٰه في عون العبد ما دام العبد في عون أخيه فلو لا المشاركة في المطلوب بالوجود من المستعان به ما صدق المستعين في استعانته و المستعين قد يستعين شرفا للمستعان به مع غناه عنه على التعيين و إن كان لا بد من سبب أو يكون ممن يستقل به دون السبب فيقصد جعله سببا لشرفه بذلك على غيره ليعلم منزلته عنده فإن اللّٰه قد جعل المفاضلة في العالم و أما المؤاخاة بين الأسماء الإلهية فلا تكون إلا بين الأسماء التي لا منافرة بينها لذاتها فإن اللّٰه ما واخى إلا بين المؤمنين ما واخى بين المؤمن و الكافر بل لم يجعل لإخوة النسب حظا في الميراث مع فقد أخوة الايمان فليس المدعي إلا أخوة الايمان أ لا تراه إذا مات عن أخ له من النسب و هو على غير دينه لم يرثه أخو النسب و ورثه أخو دينه و الصورة بيننا و بين الحق نسب و دين فلهذا ما يرث الأرض عزَّ وجلَّ إلا بعد موت الإنسان الكامل حتى لا يقع الميراث إلا في مستحق له كما يرث السماء لما فيها من حكم أرواح الأنبياء عليه السّلام لا من كونها محلا للملائكة فإذا صعقوا بالنفخة ورث اللّٰه السماء فأنزل الاسم الوارث الملائكة من السماء و بدل الأرض غير الأرض و السموات كما ذكرناه فيما قبل من هذا الكتاب فالمؤمن للمؤمن كالبنيان يشد بعضه بعضا فالمؤمن لا يبغض المؤمن و المؤمن لا يقتل المؤمن لإيمانه و المؤمن يقتل أخا النسب إذا كان غير مؤمن فهذا القدر كاف في هذا الباب فلنذكر ما يحوي عليه من العلوم فمن ذلك علم صورة نداء الحق عباده من أين يناديهم هل يناديهم من حكم مشيئته أو يناديهم من حيث ما هم عليه و من ينادي هل ينادي المعرض أو المقبل أو هما و فيه علم الآداب الإلهية و منازل المخلوقات و ما ينبغي أن يعامل به كل مخلوق بل كل موجود و علم مصالح الموجودات فلا يتصرف صاحب هذا العلم إلا فيما هو مصلحة لنفسه أو لغيره على حسب ما يصرفه المطلوب فهو خارج في تصرفاته عن هوى نفسه إنما هو مع المصالح فهو لكل شيء لا عليه و فيه علم الفهم بما يأتي به كل قائل فيعلم من أين تكلم فيقيم له عذرا فيما ينسب إليه عند من لا يعرف ذلك من الخطاء في قوله و هو علم عزيز يقل الإنصاف فيه من أهله فكيف ممن لا يعرفه و ما يؤثر تارك العمل بمثل هذا العلم في صاحبه من الحسرة و الندامة على عدم استعماله و فيه علم الحكمة في التغافل و التناسي و هو الحلم و الإمهال الإلهي أو من ذي القدرة ليرجع المغفول عنه عما هو عليه مما كان لا ينبغي أن يظهر به و لا عليه و فيه علم كون الأشياء بيد اللّٰه ليس بيد المخلوقين منها شيء و إن ظهرت الصور بأيديهم فهي بحكم الاستعارة لا بحكم الملك و فيه علم المنن الإلهية التي أسبغها على العباد في الظاهر و الباطن و تعيين ما يمكن أن يعين منها و علم برزخ المتشاجرين ليقف فيه من يريد رفع التشاجر بينهم و فيه علم الأسماء و شرفها و الفرق بينها و بين ما زاد على الإعلام منها مما وضع لمدح أو ذم و فيه علم العدول عن الطريق التي تحول بين العبد و بين حصول العلم فإنه أعلى ما يطلب و أفضل ما يكتسب و أعظم ما به يفتخر و أسد آلة تعد و تدخر و به مدح اللّٰه نفسه بأن له الحجة البالغة و ليس إلا العلم و فيه علم مراتب الخلق الإنساني في الخلق فإنهم على طبقات فيه و ما يسمى به الإنسان الذي خلقه الإنسان هل هو إنسان أو حيوان في صورة إنسان من حيث نشأة جسده و ما الأمر الذي عجز عنه في ظهور النفس الناطقة في هذا المخلوق هل لعدم الاستعداد فيقضي للمنشئ لهذه الصورة ما يقع به قبول نفس ناطقة من النفس الكل أو هل هو تعجيز إرادي إلهي لأنه أمر عظيم و قد ذكر أنه وقع مثل هذا و ذكر في الفلاحة النبطية أن بعض العلماء بعلم الطبيعة كون من المني الإنساني بتعفين خاص على وزن مخصوص من الزمان و المكان إنسانا بالصورة و أقام سنة يفتح عينيه و يغلقها و لا يتكلم و لا يزيد على ما يغذى به شيئا فعاش سنة و مات فما يدري أ كان إنسانا حكمه حكم الأخرس أو كان حيوانا في صورة إنسان و فيه علم الأنساب و الأحساب و فيه علم ما يعتبر اللّٰه من المكلف هل يعتبر ظاهره أو باطنه أو المجموع في قبول ما يكون منه بعد التكليف و أما قبله فلا يقيد بل يجري بطبعه من غير مؤاخذة أصلا و هو قوله تعالى



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