الفتوحات المكية

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(وفق مخطوطة قونية)

ففتق اللّٰه رتقه بسبع سماوات ثم إنه تتطايرت الشرر من كرة الأثير في ذلك الدخان فقبلت من السموات و من الفلك المكوكب أماكن فيها رطوبات طبيعية فتعلقت بها تلك الشرر فانقدت تلك الأماكن لما فيها من الرطوبات فحدثت الكواكب فأضاء الجو كما يضيء البيت بالسراج أ لا ترى القادح للزناد يعلق الشرر الحراق بما فيه من الرطوبة فيتقد فيكون منه المصباح و لهذا قال تعالى و جعلنا الشمس سراجا يضيء به العالم و تبصر به الأشياء التي كان يسترها الظلام فحدث الليل و النهار بحدوث كوكب الشمس و الأرض فالليل ظلمة الأرض الحجابية عن انبساط نور الشمس و الكواكب عندنا كلها مستنيرة لا تستمد من الشمس كما يراه بعضهم و القمر على أصله لا نور له البتة قد محا اللّٰه نوره و ذلك النور الذي ينسب إليه هو ما يتعلق به البصر من الشمس في مرآة القمر على حسب مواجهة الأبصار منه فالقمر مجلى الشمس و ليس فيه من نور الشمس لا قليل و لا كثير ثم إن اللّٰه رتب في كل فلك و سماء عالما من جنس طبيعة ذلك الفلك سماهم ملائكة على مقامات فطرهم اللّٰه عليها من التسبيح و التهليل و كل ثناء على اللّٰه تعالى و جعل منهم ملائكة مسخرين لمصالح ما يخلقه في عالم العناصر من المولدات و هي ثلاثة عوالم طبيعية و يسرى في كل عالم مولد من هذه الثلاثة من النفس الكلية صاحبة الآلات أرواح هي نفوس هذه المولدات بها تعلم خالقها و منشئها و بها سرت الحياة فيها كلها و بها خاطبها الحق و كلفها و هو رسول الحق إليها وداع كل شخص منه إلى ربه فما بطنت حياته سمي جمادا و نباتا و انفصل هذان المولدان و تميزا بالنمو و الغذاء فقيل في النامي منه نبات و في غير النامي جماد و ما ظهرت حياته و حسه سمي حيوانا و الكل قد عمته الحياة فنطق بالثناء على خالقه من حيث لا نسمع و علمهم اللّٰه الأمور بالفطرة من حيث لا نعلم فلم يبق رطب و لا يابس و لا حار و لا بارد و لا جماد و لا نبات و لا حيوان إلا و هو مسبح لله تعالى بلسان خاص بذلك الجنس و خلق الجان من لهب النار و الإنسان مما قيل لنا و نفخ الأرواح في الكل و قدر الأقوات التي هي الأغذية لهذه المولدات من الإنس و الجن و الحيوان البحري و البري و الهوائي



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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