الفتوحات المكية

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الآية سررت و تخيلت أني قد ظفرت بحجة و ظهرت عليه بما يقصم ظهره و قلت له يا ملعون إن اللّٰه قد قيدها بنعوت مخصوصة يخرجها من ذلك العموم فقال ﴿فَسَأَكْتُبُهٰا﴾ [الأعراف:156] فتبسم إبليس و قال يا سهل ما كنت أظن أن يبلغ بك الجهل هذا المبلغ و لا ظننت إنك هاهنا أ لست تعلم يا سهل أن التقييد صفتك لا صفته قال سهل فرجعت إلى نفسي و غصصت بريقي و أقام الماء في حلقي و و اللّٰه ما وجدت جوابا و لا سددت في وجهه بابا و علمت أنه طمع في مطمع و انصرف و انصرفت و و اللّٰه ما أدري بعد هذا ما يكون فإن اللّٰه سبحانه ما نص بما يرفع هذا الإشكال فبقي الأمر عندي على المشيئة منه في خلقه لا أحكم عليه في ذلك بأمد ينتهي أو بأمد لا ينتهي فاعلم يا أخي أني تتبعت ما حكي عن إبليس من الحجج فما رأيت أقصر منه حجة و لا أجهل منه بين العلماء فلما وقفت له على هذه المسألة التي حكى عنه سهل ابن عبد اللّٰه تعجبت و علمت أنه قد علم علما لا جهل فيه فهو أستاذ سهل في هذه المسألة و أما نحن فما أخذناها إلا من اللّٰه فما لإبليس علينا منة في هذه المسألة بحمد اللّٰه و لا غيرها و كذا أرجو فيما بقي من عمرنا و هي مسألة أصل لا مسألة فرع فإبليس ينتظر رحمة اللّٰه إن تناله من عين المنة و الجود المطلق الذي به أوجب على نفسه سبحانه ما أوجب و به تاب على من تاب و أصلح ﴿فَالْحُكْمُ لِلّٰهِ الْعَلِيِّ الْكَبِيرِ﴾ [غافر:12] عن التقييد في التقييد فلا يجب على اللّٰه إلا ما أوجبه على نفسه فالعارف كذلك في جوده لا يتقيد و لا يعطي واجبا يجب عليه فإن وجوب العطاء إنما سببه الملك و لا ملك للعارف مع اللّٰه فالمال الذي بيد العارف هو لله ليس له و الزكاة تجب في عين المال على رب المال و لا رب له سواه سبحانه فقد أوجب على نفسه أن يخرج من هذا المال مقدارا معينا هو حق لطائفة من خلقه أوجبه لهم على نفسه في هذا المال الذي بيد العارف فيخرج العارف من هذا المال حق تلك الطائفة نيابة عن رب المال كما يخرج الوصي عن اليتيم بحكم الوكالة فإنه وليه و من هذا الباب زلت طائفة في كشفها لهذا المقام فلم تؤد زكاة ما بيدها من المال و رأيت منهم جماعة مع كونهم يخرجون ما هو أكثر من الزكاة و لا يزكونه و يقولون إن اللّٰه تعالى لا يجب عليه شيء و هذا المال لله ليس لي و يدي فيه عارية و أنا في هذه المسألة حنفي المذهب فكما لا يجب على ولي اليتيم إخراج الزكاة عن اليتيم لأن اليتيم لا تجب عليه الزكاة في ماله لأنه المخاطب فلا أزكيه فقد بينت لك وفقك اللّٰه الجود الإلهي و تقسيمه و أما هل يكون الحق عوضا لعمل خاص أم لا فاعلم إن مالك بن أنس رضي اللّٰه عنه يقول في الرجل يعطي الرجل هدية ثم إن المعطى له لا يكافئه فيطلبه بالمكافاة عند الحاكم فللحاكم إن يفصل عليه الأمر لما فيه من الإجمال ليترتب الحكم على التعيين فيقول له حين أعطيته هذه الهدية ما ابتغيت بها هل ابتغيت بها جزاء من الجنة أو معاوضة في الدنيا أو ابتغيت بها وجه اللّٰه فإن قال الخصم ابتغيت بها الأجر في الآخرة من الجنة أو المعاوضة في الدنيا حكم على المعطي إياه برد عين ما أخذه منه إن كانت عينه باقية و إن كانت العين قد ذهبت حكم له بالقيمة على الخلاف في ذلك هل تعتبر القيمة في الشيء في زمان العطاء أو في زمان القضاء و إن قال إنما أعطيتها ابتغاء وجه اللّٰه لم يحكم له بشيء في ذلك و قال ليس بيد صاحبك ما قصدته بهديتك فمن وجه أثبته عوضا عنها فيما يظهر فإنه لم يصرح مالك بأكثر من هذا و من وجه ينفي أن يكون عوضا فإنه لا يماثله في القدر شيء من مخلوقاته و الكل نعمته غير أنه المعاوضة على اللّٰه لهذا المعطي في الدار الآخرة مما يناسب هديته فإن زاد على ذلك فمن باب المنة و قد قيل

لكل شيء إذا فارقته عوض *** و ليس لله إن فارقت من عوض

و التحقيق في هذه المسألة أن الحق من حيث ذاته و وجوده لا يقاومه شيء و لا يصح أن يراد و لا يطلب لذاته و إنما يطلب الطالب و يريد المريد معرفته أو مشاهدته أو رؤيته و هذا كله منه ليس هو عينه و إذا كان منه لا عينه فقد يصح أن يكون عوضا فيكون عمله في الدنيا الذي هو الحضور مع اللّٰه في



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