الفتوحات المكية

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فأهل طريقنا لم يشتغلوا عند ورود هذا الكلام بما يلهيهم عما يتضمنه من الفوائد فإن اقتضى جوابا أجابوا ربهم و إن اقتضى غير ذلك بادروا إلى فعل ما يقتضيه ذلك الخطاب و هم يسارقون النظر في تلك الحالة إلى المتكلم لتقر أعينهم بذلك كما تنعمت نفوسهم من حيث السماع غير أنهم لا يتحققون بالنظر في هذه الحال لمعرفتهم بأن مراد الحق فيهم فيها الفهم عنه فيما يكلمهم به فيخافون من النظر مع شوقهم أن يفنيهم عن الذي طولبوا به من الفهم فيكونون ممن آثروا حظوظ نفوسهم على ما أراده الحق منهم فهم في كلا الحالين عبيد فقراء غير أن الأدب في كل حضرة من هذه الحضرات الوفاء بما تستحقه الحضرة التي يقام العبد فيها و لمطلوبه حضرة أخرى هي غير هذه فلا يستعجل فيحرم ﴿وَ مٰا كٰانَ لِبَشَرٍ أَنْ يُكَلِّمَهُ اللّٰهُ إِلاّٰ وَحْياً أَوْ مِنْ وَرٰاءِ حِجٰابٍ أَوْ يُرْسِلَ رَسُولاً﴾ [الشورى:51] ينوب عنه في الكلام و هو الترجمان قال تعالى ﴿فَأَجِرْهُ حَتّٰى يَسْمَعَ كَلاٰمَ اللّٰهِ﴾ [التوبة:6] يريد على لسان الترجمان الذي هو رسول اللّٰه صلى اللّٰه عليه و سلم فسمعت بعض الشيوخ يقول ما دام في بشريته فالكلام له من وراء حجاب و لكن إذا خرج عن بشريته ارتفع الحجاب و هذا الشيخ هو عبد العزيز بن أبي بكر المهدوي المعروف بابن الكرة سمعته منه بمنزلة بتونس رحمه اللّٰه فأصاب فيه و أخطأ فأما إصابته فإثباته و تقريره للكلام من وراء الحجاب و إنه لم يجمع بينه و بين المشاهدة و أما خطؤه فقوله ارتفع الحجاب و لم يقيد و إنما يقال ارتفع حجاب بشريته و لا شك أن خلف حجاب بشريته حجبا أخر فقد يرتفع حجاب البشرية و يقع الكلام من اللّٰه لهذا العبد خلف حجاب آخر أعلاها من الحجب و أقربها إلى اللّٰه و أبعدها من المخلوق المظاهر الإلهية التي يقع فيها التجلي إذا كانت محدودة معتادة المشاهدة كظهور الملك في صورة رجل فيكلمه على الاعتدال للعادة و الحد و قد تجلى له و قد سد الأفق فغشي عليه لعدم المعتاد و إن وجد الحد فكيف بمن لم ير حدا و لا اعتاد فقد تكون المظاهر غير محدودة و لا معتادة و قد تكون محدودة لا معتادة و قد تكون محدودة معتادة و تختلف أحوال المشاهدين في كل حضرة منها فمن عدل عن حضرة المكالمة فقد لحق بأهل الخسران و إن سعد و لكن بعد شقاء عظيم و إن من الناس من أصحاب الدعاوي في هذه الطريقة الذين قال اللّٰه فيهم ﴿وَ قَدْ خٰابَ مَنْ دَسّٰاهٰا﴾ [الشمس:10] حين



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