الفتوحات المكية

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في حال حياتهم فأمرهم بالإسلام في المستقبل أي بالثبوت عليه و الاستقبال بعيد عن زمان الحال فيكون التأيه أيضا بما هو موجود في الحال أن يكون باقيا في المستقبل قال تعالى ﴿يٰا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا أَوْفُوا بِالْعُقُودِ﴾ [المائدة:1] و هم في حال الوفاء بعقد الايمان فإنه نعتهم في تأيهه بهم بالإيمان فكان البعد في العقود إذا قبلوها متى قبلوها

[أن النداء الإلهي عام يشمل المؤمن و الكافر و الطائع و العاصي]

و اعلم أن النداء الإلهي يعم المؤمن و الكافر و الطائع و العاصي و الأرواح و الروحانيين و لا يكون النداء إلا من الأسماء الإلهية ينادي الاسم الإلهي من حكم عليه اسم إلهي غيره إذا علم أنه قد انتهت مدة حكمه فيه فيأخذه هذا الاسم الذي ناداه كذلك دنيا و آخرة فجميع من سوى اللّٰه تعالى منادى يناديه اسم إلهي لحال كوني يطلبه به ليوصله إليه فإن أجاب سمي مطيعا و كان سعيدا و إن لم يجب سمي عاصيا و كان شقيا فإن قال قائل كيف يكون النداء من اسم إلهي و يقف الكون عن إجابته مع ضعفه و قبوله للاقتدار الإلهي قلنا لم تكن إبايته عن إجابته من حيث نفسه و حقيقته لأنه مقهور دائما و لكن لما كان تحت قهر اسم إلهي لم يتركه ذلك الاسم أن يجيب من ناداه فالتنازع وقع بين الأسماء الإلهية و هم أكفاء و الحكم لصاحب اليد و هو الاسم الذي هو في يده في وقت نداء الاسم الآخر فلهذا كان أقوى للحال فإن قلت فلما ذا يؤاخذ بالإباءة قلنا لأنه ادعى الإباية لنفسه و لم يضفها إلى الاسم الإلهي الذي هو تحت قهره فإن قلت فالأمر باق فإنه إنما أبي لقهر اسم إلهي كانت الإباية عنه في هذا المدعو قلنا صدقت و لكنه جهل ذلك فأخذ بجهله فإن الجهل له من نفسه فإن قلت فإن جهله من اسم إلهي حكم عليه قلنا الجهل أمر عدمي لا وجودي و الأسماء الإلهية تعطي الوجود ما تعطي العدم فالعدم للمدعو من نفسه و الجهل عدم العلم فلم يدر المعترض ما اعترض به و الأسماء الإلهية لا تعطي إلا الوجود فلم يلزم ما ذكرته و انقطع الاعتراض من هذا القائل بما ذكرناه و إذا ثبت أن النداء يعم فالمنادي به أيضا يعم و لكن نداء الحق لا يكون إلا بما يكون في إجابته السعادة للعبد و أما النداء بما يكون فيه الشقاوة للعبد فذلك ليس نداء الحق و النداء من صفة الكلام فكل فعل يفعله العبد ينقسم إلى أمرين إلى فعل فيه سعادة ذلك العبد و هو الذي يقترن به نداء الحق تعالى و فعل لا يقترن به سعادة العبد فليس عن نداء الحق لكنه عن إرادة الحق و خلقه لا عن ندائه و أمر شرعه و نفي السعادة فيه على قسمين الواحد أن يكون فعلا لا يقترن به شقاوة و لا سعادة أو يكون فعلا تقترن به شقاوة و الفعل الذي تقترن به الشقاوة على قسمين قسم تقترن به على الأبد و هي شقاوة الشرك و شقاوة لا تقترن به على الأبد و هو كل فعل لا يكون شركا و لا نداء للحق فيه البتة فهذا المنزل هو منزل النداء لا منزل الأفعال و سيأتي إن شاء اللّٰه منازل الأفعال و يشتبه على بعض العارفين هذا المنزل و إخوانه بمنزل الأفعال لكونه يرى النداء بالأفعال و ليس المنزل واحدا في ذلك بل النداء له منزل و الفعل له منزل*

[أن النداء على مراتب]



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