الفتوحات المكية

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(وفق مخطوطة قونية)

فالأمر ليس له حد يحيط به *** لكنه الرزق في الأشخاص مقسوم

[الري عبارة عن الاكتفاء به و يضيق المحل عن الزيادة منه]

الري ما يحصل به الاكتفاء و يضيق المحل عن الزيادة منه اعلم أنه لا يقول بالري إلا من يقول بأن ثم نهاية و غاية وهم المكشوف لهم عالم الحياة الدنيا و نهاية مدتها و هم أهل الكشف في اللوح المحفوظ المعتكفون على النظر فيه أو من كان كشفه في نظرته ما هو الوجود عليه ثم يسدل الحجاب دونه و يرى التناهي إذ كل ما دخل في الوجود متناه و ليس لصاحب هذا الكشف من الكشف الأخروي شيء فمن رأى الغاية قال بالري و علق همته بالغاية و هؤلاء هم الذين قال فيهم شيخنا أبو مدين إنه من رجال اللّٰه من يحن في نهايته إلى البداية و ذلك لأن اللّٰه ما كشف لهم عن حقيقة الأمر على ما هو عليه كالقائلين برجوع الشمس في طول النهار و ما هو رجوع في نفس الأمر و القائلون بالري هم القائلون بالدور لما يرونه من تكرار أيام الجمعة و الشهور و الذين لا يقولون بالري هم الذين يسمون النهار و الليل الجديدين و ليس عندهم تكرار جملة واحدة فالأمر له بدء و ليس له غاية لكن فيه غايات بحسب ما تتعلق به همم بعض العارفين فيوصلهم اللّٰه إلى غاياتهم و من هناك يقع لهم التجديد فيه لا عليه فيفوتهم خير كثير من الحكم و علم كبير في الإلهيات بل يفوتهم من علم الطبيعة خير كثير فإن تركيبها لا نهاية له في الدنيا و الآخرة و يحجبهم عن عدم الري قوله تعالى ﴿وَ إِلَيْهِ تُرْجَعُونَ﴾ [البقرة:245] فسماه رجوعا و ذلك لكونه شغلهم عنه بالنظر في ذواتهم و ذوات العالم عند صدورهم من اللّٰه فإذا وفوا النظر فيما وجد من العالم تعلقوا بالله فتخيلوا أنهم رجعوا إليه من حيث صدورهم عنه و ما علموا أن الحقيقة الإلهية التي صدروا عنها ما هي التي رجعوا إليها بل هم في سلوك دائما إلى غير نهاية و إنما نظروا لكونهم رجعوا إلى النظر في الإله بعد ما كانوا ناظرين في نفوسهم لما لم يصح أن يكون وراء اللّٰه مرمى و سبب الري الحقيقي أنه لما لم يتمكن أن يقبل من الحق إلا ما يعطيه استعداده و ليس هناك منع فحصل الاكتفاء بما قبله استعداد القابل و ضاق المحل عن الزيادة من ذلك فقال صاحب هذا الذوق ارتويت فما يقول بالري إلا من هو واقف مع وقته و ناظر إلى استعداده ﴿وَ اللّٰهُ يَقُولُ الْحَقَّ وَ هُوَ يَهْدِي السَّبِيلَ﴾ [الأحزاب:4]

«الباب الأحد و الخمسون و مائتان في عدم الري»



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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