الفتوحات المكية

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و قوله ﴿يَوْمَ تَشْهَدُ عَلَيْهِمْ أَلْسِنَتُهُمْ وَ أَيْدِيهِمْ وَ أَرْجُلُهُمْ﴾ [النور:24] و قوله ﴿قٰالُوا أَنْطَقَنَا اللّٰهُ﴾ [فصلت:21] و إما أن لا تكون ممن نسب إليه قول و لا نطق و هو الذي نسب إليه التسبيح الذي لا يفقه و ما قال لا يسمع إذ الكلام أو القول هو الذي من شأنه أن يتعلق به السمع و التسبيح لو كان قولا أو كلاما لنفى عنه سمعنا و إنما نفى عنه فقهنا و هو العلم و العلم قد يكون عن كلام و قول و قد لا يكون فإذا تجلى في مثل هذه الصور فيكون النطق بحسب ما يريده المتجلي مما يناسب تسبيح تلك الصورة لا يتعداه فيفهم من كلام ذلك المتجلي تسبيح تلك الصورة و هو علم عجيب قليل من أهل اللّٰه من يقف عليه فيكون الكلام المنسوب إلى اللّٰه عزَّ وجلَّ في مثل هذه الصور بحسب ما هي عليه هذا إذا وقع التجلي في المواد النورية و الطبيعية فإن وقع التجلي في غير مادة نورية و لا طبيعية و تجلى في المعاني المجردة فيكون ما يقال في مثل هذا إنه كلام فمن حيث أثره في المتجلي له لا من حيث إنه تكلم بكذا و تلك الآثار كلها من طبقات الكلام الذي تقدم تسمى كلمات اللّٰه جمع كلمة و هي أعيان الكائنات قال تعالى ﴿وَ كَلِمَتُهُ أَلْقٰاهٰا إِلىٰ مَرْيَمَ﴾ [النساء:171] و هو عين عيسى لم يلق إليها غير ذلك و لا علمت غير ذلك فلو كانت الكلمة الإلهية قولا من اللّٰه و كلاما لها مثل كلامه لموسى عليه السّلام لسرت و لم تقل ﴿يٰا لَيْتَنِي مِتُّ قَبْلَ هٰذٰا وَ كُنْتُ نَسْياً مَنْسِيًّا﴾ [مريم:23] فلم تكن الكلمة الإلهية التي ألقيت إليها إلا عين عيسى روح اللّٰه و كلمته و هو عبده فنطق عيسى ببراءة أمه في غير الحالة المعتادة ليكون آية فكان نطقه كلام اللّٰه في نفس الرحمن فنفس اللّٰه عن أمه بذلك ما كان أصابها من كلام أهلها بما نسبوها إليه مما طهرها اللّٰه عنه و من هنا قالت المعتزلة إن المتكلم من خلق الكلام و فيما ليس من شأنه أن يتكلم فذلك كلام اللّٰه مثل الجماد و النبات و حالة عيسى إلا القائلين بالشكل الغريب فيجعلون مثل هذا من الأشكال الحادثة في الكون فقد بينا لك معنى كلام اللّٰه و كلماته و كلام اللّٰه تعالى علمه و علمه ذاته و لا يصح أن يكون كلامه ليس هو فإنه كان يوصف بأنه محكوم عليه للزائد على ذاته و هو لا يحكم عليه عزَّ وجلَّ و كل ذي كلام موصوف بأنه قادر على أن يتكلم متمكن في نفسه من ذلك و الحق لا يوصف بأنه قادر على أن يتكلم فيكون كلامه مخلوقا و كلامه قديم في مذهب الأشعري و عين ذاته في مذهب غيره من العقلاء فنسبة الكلام إلى اللّٰه مجهولة لا تعرف كما أن ذاته لا تعرف و لا يثبت الكلام للاله إلا شرعا ليس في قوة العقل إدراكه من حيث فكره فافهم أن النفس للرحمن و الكلام لله و القول و هو انتهاء النفس إلى عين كلمة من الكلمات فيظهر عينها بعد بطونها و تفصيلها بعد إجمالها فإن قلت فائدة الكلام الإسماع و ما في الوجود إلا اللّٰه و هو متكلم فمن أسمع قلنا ليس من شرط السامع أن يكون موجودا فإنه يقول للمعدوم في حال عدمه كن فيكون المعدوم عند ما يتعلق بسمعه الثبوتي كلام اللّٰه و أمره بالوجود و كذلك المرئي علة رؤيته جواز رؤيته الوجود بل الاستعداد و التهيؤ سواء كان موجودا أو معدوما و الجواب الآخر كما أنه تكلم من حيث ما هو منعوت بالكلام يسمع كلامه من كونه سميعا و هما نسبتان مختلفتان فإن قلت ففائدة سماع الكلام حصول العلم و هو عالم لذاته قلنا ما كل كلام موضوع لحصول ما لا يعلم فإن المتكلم يثني على نفسه بما هو عالم به إنه عليه فلا يستفيد بل هو للابتهاج بالكمال الذاتي فالحق لم يزل متكلما و إن حدث في الكون فلا يدل على حدوثه في نفس الأمر قال تعالى ﴿مٰا يَأْتِيهِمْ مِنْ ذِكْرٍ مِنْ رَبِّهِمْ مُحْدَثٍ﴾ [الأنبياء:2] يعني عندهم و إن كان قد تكلم به مع غيره قبل هذا مثل ما في التوراة و غيرها مما هو في القرآن هذا إذا قلنا إنه يريد كلام اللّٰه الذي هو صفة له و إن كان الظاهر أن السامع إنما سمع كلام المترجم عن اللّٰه كما «قال إن اللّٰه قال على لسان عبده سمع اللّٰه لمن حمده»



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