الفتوحات المكية

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(وفق مخطوطة قونية)

كذا قد جاء في القرآن نصا *** لأمر في حنين قد دهاه

[الذهاب عند الطائفة غيبة القلب عن حس كل محسوس بمشاهدة المحبوب]

معنى الذهاب و هي غيبة القلب عن حس كل محسوس بمشاهدة المحبوب و ذلك يا ولي أن القلب و الباطن لا يتمكن للعارف فكيف للمحب أن يمر عليه نفس و لا حال لا يكون المحبوب فيه مشهودا له بعين قلبه و وجوده و ما بقي حجاب إلا في الحس بإدراكه المحسوسات حيث يراها ليست عين محبوبه فيحجبه فيطلب اللقاء لأجل هذا الحجاب فإذا ذهب المحسوس عن حسه في ظاهر الصورة كما يذهب في حق النائم انصرف الحس إلى الخيال فرأى مثال محبوبه في خياله و قرب من قلبه فرآه من غير مثال لأن الخيال ما بينه و بين المعنى واسطة و لا درجة كما أنه ليس بينه و بين المحسوس واسطة و لا درجة فهو واسطة العقد إليه ينزل المعنى و إليه يرتفع المحسوس فهو يلقي الطرفين بذاته فإذا انتقل العارف أو المحب من المحسوس إلى الخيال قرب من معنى المحبوب فشاهده في الخيال ممثلا ذا صورة و شاهده و هو في الخيال لما عدل بنظره إلى حضرة المعاني المجاورة لحضرة الخيال عاين المعنى مجردا عن المثال و الصورة ثم نظر إلى المثال و إلى المحسوس فعلم أنه لو تصور هذا المعنى في المحسوس لكان جميع صور المحسوسات صورته فغاب هذا المشاهد عن شهود كل محسوس إنه غير صورة محبوبه بل كل محسوس صورة محبوبه و لا بد فذهب عنه صورة المحسوس إنها غير صورة محبوبه فصار يشاهده في كل شيء فهذا هو الذهاب و منه المذهب الذي هو الطريق سمي مذهبا للذهاب فيه فهذا المحب ذاهب في صور المحسوسات كلها إنها صورة عين محبوبه فلا يزال في اتصال دائم في عالم الحس و في حضرة الخيال و في حضرة المعاني فله الذهاب في هذه الحضرات كلها و صارت مذهبا له حتى نفسه في جملة الصور و لهذا يقول

أنا من أهوى *** و من أهوى أنا

و مثل هذا قلنا في قصيدة



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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