الفتوحات المكية

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ففيه فسافر لا إليه و لا تكن *** جهولا فكم عقل عليه يثابر

[أن المسافر في طريق اللّٰه رجلان]

اعلم أيدك اللّٰه أن المسافر في طريق اللّٰه رجلان مسافر بفكره في المعقولات و الاعتبارات و مسافر بالأعمال و هم أصحاب اليعملات فمن أسفر له طريقه عن شيء فهو مسافر و يجب عليه قصر الصلاة على اللّٰه و هو مخير في الصوم و من لم يسفر له طريقه عن شيء فهو سالك متصرف في طرق مدينته و شوارعها غير مسافر فليصم و ليتم صلاته فلنذكر حالة المسافر في الطريق و اللّٰه المؤيد و الموفق إن شاء اللّٰه المسافر من سافر بفكره في طلب الآيات و الدلالات على وجود صانعه فلم يجد في سفره دليلا على ذلك سوى إمكانه و معنى إمكانه هو أن ينسب إليه و إلى جميع العالم الوجود فيقبله أو العدم فيقبله فإذا تساوى في حقه الأمران لم تكن نسبة الوجود إليه من حيث ذاته بأولى من نسبة العدم فافتقر إلى وجود المرجح الذي رجح له أحد الوصفين على الآخر فلما وصل إلى هذا المنزل و قطع هذه المنهلة و أسفرت له عن وجود مرجحه أحدث سفرا آخر في علم ما ينبغي لهذا الصانع الذي أوجده فأسفر له الدليل على انفراده بصفات التنزيه تنزيه ما هو عليه هذا الممكن من الافتقار و أن هذا المرجح واجب الوجود لنفسه لا يجوز عليه ما جاز على هذا الممكن ثم انتقل مسافرا إلى منزلة أخرى فأسفر له عن أن هذا الواجب الوجود لنفسه يستحيل عليه العدم لثبوت قدمه و أنه من ثبت قدمه استحال عدمه لأنه لو كان عدمه لنفسه لما كان واجب الوجود لنفسه و لو انعدم ينعدم فلا بد أن يكون ذلك المعدم له وجودا أو عدما محال أن يكون عدما فبقي أن يكون وجودا و إذا كان وجودا فلا بد أن يكون المعدم شرطا أو ضدا و أن كل واحد من هذين إما أن يكون واجب الوجود أيضا لنفسه فمن المحال وجود هذا الذي دل الدليل على وجوب وجوده لنفسه ثم يساق الدليل على مساق الأدلة في المعقولات ثم يسافر في منزلة أخرى إلى أن ينفي عنه كل ما يدل على حدوثه فيحيل أن يكون هذا المرجح جوهرا متحيزا أو جسما أو عرضا أو في جهة ثم يسافر في علم توحيده بوجود العالم و بقائه و صلاحه إذ لو كان معه إله آخر لم يوجد العالم على تقدير الاتفاق و الاختلاف كما يعطيه النظر ثم ينتقل مسافرا أيضا إلى منزلة تعطيه العلم بما يجب لهذا المرجح من العلم بما أوجده و خلقه و الإرادة لذلك و نفوذها و عدم قصورها و عموم تعلق قدرته بإيجاد هذا الممكن و حياة هذا المرجح لأنها الشرط في ثبوت هذه النعوت له و إثبات صفات الكمال من الكلام و السمع و البصر بأنه لو لم يكن على ذلك لكان مئوفا لأن القابل لا حد الضدين إذا عرى عن أحدهما لم يعر عن الآخر فإذا عرف هذا سافر إلى منزلة أخرى يعلم منها و تسفر له عن إمكان بعثة الرسل ثم يسافر فيعلم أنه قد بعث رسلا و أقام لهم الدلالة على صدقهم فيما ادعوه من أنه بعثهم و لما تقرر هذا و كان هو ممن بعث إليه هذا الرسول فآمن به و صدقه و اتبعه فيما رسم له حتى أحبه اللّٰه فكشف له عن قلبه و طالع عجائب الملكوت و انتقش في جوهر نفسه جميع ما في العالم وفر إلى اللّٰه مسافرا من كل ما يبعده منه و يحجبه عنه إلى أن رآه في كل شيء فلما رآه في كل شيء أراد أن يلقي عصا التسيار و يزيل عنه اسم المسافر فعرفه ربه أن الأمر لا نهاية له لا دنيا و لا آخرة و أنك لا تزال مسافرا كما أنت على ذلك لا يستقر بك قرار كما لم تزل تسافر من وجود إلى وجود في أطوار العالم إلى حضرة ﴿أَ لَسْتُ بِرَبِّكُمْ﴾ [الأعراف:172] ثم لم تزل تنتقل من منزلة إلى منزلة إلى أن نزلت في هذا الجسم الغريب العنصري فسافرت به كل يوم و ليلة تقطع منازل من عمرك إلى منزلة تسمى الموت ثم لا تزال مسافرا تقطع منازل البرازخ إلى أن تنتهي إلى منزلة تسمى البعث فتركب مركبا شريفا يحملك إلى دار سعادتك فلا تزال فيها تتردد مسافرا بينها و بين كثيب المسك الأبيض إلى ما لا نهاية له هذا سفرك بهيكلك و أما في المعارف فمثل ذلك و كذلك لا تزال مسافرا بالأعمال البدنية و الأنفاس من عمل إلى عمل ما دام التكليف فإذا انتهت مدة التكليف فلا تزال مسافرا سفرا ذاتيا تعبده لذاته لا بأمره



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