الفتوحات المكية

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﴿فَأَلْهَمَهٰا فُجُورَهٰا وَ تَقْوٰاهٰا﴾ [الشمس:8] ذلك الأول في الباطن فإنه في الإرادة و هذا في الظاهر إذ لا يعتبر إلا بعد الوقوع فالتارك للأدب أديب من حيث لا يعلم فإنه مع الكشف و بحكمه لا مع الذي هم المحجوبون فيه فهو يعاين علم اللّٰه في جريان المقادير قبل وقوعها فيبادر إليها فينطلق عليه بلسان الموطن أنه غير أديب مع الحق فإنه مخالف بل هذا هو غاية الأدب مع الحق و لكن أكثر الناس لا يشعرون و منهم من يقام في الإدلال كعبد القادر الجيلي ببغداد سيد وقته و منهم من يكون وقته في ذلك كنت سمعه و بصره و الأدب يستدعي الغير و ثم مقام يفني الأغيار فيزول الأدب لأنه ما ثم مع من و أما بلسان عامة الطريق و خواص أكثرهم فإن مقام ترك الأدب مع الحقيقة هو الواقع المشروع في العموم و الخصوص و هو مقام جليل لا يقف معه إلا الذكران من أهل اللّٰه و فحول أصحاب المقامات لا أصحاب الأحوال و القرآن كله نزل في هذا المقام إلا آيات مفردات قد ذكرناها في أول الباب و ما يحار في هذا المقام إلا رجلان مكاشف به و مشاهد له فالحقيقة تطلبه و الحق الموضوع يطلبه و الأدب مع أحدهما ترك الأدب مع الآخر و حصلت أنت في مقام الترجيح و ليس لك ذلك فمن الرجال من يترك أدب الحق الموضوع من اعتقاده و باطنه و يترك أدب الحقيقة من ظاهره و يكون أديبا مع الحق في ظاهره غير أديب مع الحقيقة في ظاهره و يكون أديبا مع الحقيقة في باطنه غير أديب مع الحق في باطنه لما رأوا أن النجاة في ذلك و السعادة و إن عكس الأمر شقاء فهو يطرد و لا ينعكس و ثم طائفة تقول إن الأدب مع الحق الذي هو الشرع أدب مع الحقيقة فمن تركه هنا تركه هنا و لا يعرفون من وجه و ذلك لأن الحق المشروع بين الأمر الذي لأجله حكم بالمنع فقال و من غيرته حرم الفواحش : لا أنه جعلها فواحش بالتحريم و هذا المذهب أدخل في باب الحكمة و مذهب المخالف أدخل في أحدية العين و لهذا المقام رجال و لمخالفه رجال و بالجملة فهو موضع حيرة لا يخلص لهؤلاء من جميع الوجوه و لا لهؤلاء من جميع الوجوه فإن الإخبارات الإلهية أكثرها تعارض الأدلة العقلية في هذا الباب و أية حيرة أعظم من هذه الحيرة و هذا هو المتشابه الذي ينبغي أن يقول فيه من لم يطلعه اللّٰه على العلم به آمنا به ﴿كُلٌّ مِنْ عِنْدِ رَبِّنٰا﴾ [آل عمران:7] و لكن ما يتذكر ذلك ﴿إِلاّٰ أُولُوا الْأَلْبٰابِ﴾ [البقرة:269] و هم الآخذون بلب العقل لا بقشره ﴿وَ اللّٰهُ يَقُولُ الْحَقَّ وَ هُوَ يَهْدِي السَّبِيلَ﴾ [الأحزاب:4]



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