الفتوحات المكية

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(وفق مخطوطة قونية)

فنقول إن اللّٰه تعالى لما أوجد الكلمة المعبر عنها بالروح الكلي إيجاد إبداع أوجدها في مقام الجهل و محل السلب أي أعماه عن رؤية نفسه فبقي لا يعرف من أين صدر و لا كيف صدر و كان الغذاء فيه الذي هو سبب حياته و بقائه و هو لا يعلم فحرك اللّٰه همته لطلب ما عنده و هو لا يدري أنه عنده فأخذ في الرحلة بهمته فأشهده الحق تعالى ذاته فسكن و عرف أن الذي طلب لم يزل موصوفا قال إبراهيم بن مسعود الإلبيري

قد يرحل المرء لمطلوبه *** و السبب المطلوب في الراحل

و علم ما أودع اللّٰه فيه من الأسرار و الحكم و تحقق عنده حدوثه و عرف ذاته معرفة إحاطية فكانت تلك المعرفة له غذاء معينا يتقوت به و تدوم حياته إلى غير نهاية فقال له عند ذلك التجلي الأقدس ما اسمي عندك فقال أنت ربي فلم يعرفه إلا في حضرة الربوبية و تفرد القديم بالألوهية فإنه لا يعرفه إلا هو فقال له سبحانه أنت مربوبي و أنا ربك أعطيتك أسمائي و صفاتي فمن رآك رآني و من أطاعك أطاعني و من علمك علمني و من جهلك جهلني فغاية من دونك أن يتوصلوا إلى معرفة نفوسهم منك و غاية معرفتهم بك العلم بوجودك لا بكيفيتك كذلك أنت معي لا نتعدى معرفة نفسك و لا ترى غيرك و لا يحصل لك العلم بي إلا من حيث الوجود و لو أحطت علما بي لكنت أنت أنا و لكنت محاطا لك و كانت أنيتي أنيتك و ليست أنيتك أنيتي فأمدك بالأسرار الإلهية و أربيك بها فتجدها مجعولة فيك فتعرفها و قد حجبتك عن معرفة كيفية إمدادي لك بها إذ لا طاقة لك بحمل مشاهدتها إذ لو عرفتها لاتحدت الإنية و اتحاد الإنية محال فمشاهدتك لذلك محال هل ترجع إنية المركب إنية البسيط لا سبيل إلى قلب الحقائق فاعلم إن من دونك في حكم التبعية لك كما أنت في حكم التبعية لي فأنت ثوبي و أنت ردائي و أنت غطائي

[مأساة الروح في السماء]



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