الفتوحات المكية

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(وفق مخطوطة قونية)

فالرسل مبشرون و منذرون و الورثة منذرون خاصة لا مبشرون لكنهم مبشرون اسم مفعول فإذا بشر الولي أحدا بسعادة فما هو من هذا الباب بل البشارة في ذلك بتعيين السعيد و بشارة الأنبياء متعلقة بالعمل المشروع و هو أنه من عمل كذا كان له كذا في الجنة أو نجاه اللّٰه من النار بعمل كذا هذا لا يكون إلا للرسل ليس للولي فيه دخول و له أن يعطي تعيين السعيد لا من حيث العمل فيقول في الكافر و هو في حال كفره إنه سعيد و في المؤمن في حال إيمانه إنه شقي فيختم لكل واحد بالسبب الموجب لسعادته أو شقاوته تصديقا لقول الولي هذا القدر بقي للأولياء من نبوة الإخبار لا من نبوة التشريع

[الخصائص الروحانية للرسالة البشرية]

و لها من الحروف ياء العلة و له الدعوى و الآيات و صاحبها مسئول و له الكشف في أوقات و هو قوله ﴿لاٰ تُحَرِّكْ بِهِ لِسٰانَكَ لِتَعْجَلَ بِهِ﴾ [القيامة:16] و هي و إن نزلت من الكرسي فإذا رجعت فلا تتعدى سدرة المنتهى و الرسالة تنزل معاني و تعود إلى السدرة صورا ينشئها العبد إنشاء و هذا له من الاسم الخلاق الذي أعطى و معراجها براقي و رفرفى و لكن من السموات و رئيس أرواحها النازلين بها جبريل و هو أستاذ الرسل و هو الموكل بهذا المقام و ما يتصور لهذا المقام نسخ و إنما الأشخاص تختلف و كل شخص يجري فيه إلى أجل مسمى و لهذا جاء ﴿وَ الْمُرْسَلاٰتِ عُرْفاً﴾ [المرسلات:1] و قال ﴿رُسُلَنٰا﴾ [البقرة:119] ﴿تَتْرٰا﴾ [المؤمنون:44] و لا يقع فيها تفاضل و إنما التفاضل بين المرسلين لا من كونهم مرسلين بل من مقام آخر

[الإيمان بالرسالة النابع من القلب و المتولد عن دليل]

و لا يشترط على الرسول فيها إقامة الدليل للمرسل إليه بل لها الجبر و لهذا مع وجود الدليل ما نجد وقوع الايمان في محل المرسل إليه من كل أحد بل من بعضهم فلو كان لنفس الدليل لعم و نراه يوجد ممن لم ير دليلا فدل أن الايمان نور يقذفه اللّٰه في قلب من يشاء من عباده لا لعين الدليل فلهذا لم نشترط فيه الدليل فالإيمان علم ضروري يجده المؤمن في قلبه لا يقدر على دفعه و كل من آمن عن دليل فلا يوثق بإيمانه فإنه معرض للشبه القادحة فيه لأنه نظري لا ضروري و قد نبهتك في هذا على سر غامض لا يعرفه كل أحد



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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