الفتوحات المكية

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[الشره و الحرص نحيزتان في جبلة الإنسان]

اعلم أيدك اللّٰه أن هاتين الصفتين مجبول عليهما الإنسان بما هو إنسان و كل ما هو الإنسان مجبول عليه فمن المحال زواله فهو مقام لا حال فإنه ثابت و يتطرق إليه الذم من جهة متعلقة إذا كان مذموما شرعا و عقلا قال تعالى ﴿وَ لَتَجِدَنَّهُمْ أَحْرَصَ النّٰاسِ عَلىٰ حَيٰاةٍ﴾ [البقرة:96] و «قال ﷺ زادك اللّٰه حرصا و لا تعد» فالآية موجهة لطرفي الحمد و الذم لو لا الضمير الذي في قوله ﴿وَ لَتَجِدَنَّهُمْ﴾ [البقرة:96] فإنه يعود على قوم مذمومين و قرينة الحال تدل على أن مساقه الحرص فيها على الذم تكذيبا لهم فيما ادعوه من أن الدار الآخرة خالصة لهم من دون الناس فمن نظر في الحرص هنا الدلالة على كذبهم كان محمودا فيهم لأنه دليل إلهي على كذبهم فهو من جانب الحق فيهم عليهم حجة لله و لله ﴿اَلْحُجَّةُ الْبٰالِغَةُ﴾ [الأنعام:149] و المذموم هو المذموم من كل وجه من حيث ما هو فيهم لا من حيث دلالته عليهم و كان متعلقة ما يفنى و تكذيب الصادق كان مذموما و أما في الخبر الذي أوردناه فهو محمود لأنه حرص على أداء عبادة مفروضة

[الشره و الحرص من صفات الوارث سائس الأمة]

ثم إنه مع هذا فإنهما صفتان من صفات العالم الوارث المكمل الذي هو سائس أمة فهو ينظر فيما فيه صلاحهم كما قال في نبيه ﷺ يمدحه به ﴿حَرِيصٌ عَلَيْكُمْ﴾ [التوبة:128] فمدحه بالحرص على ما تسعد به أمته و شرهه و «حرصه على إسلام عمه أبي طالب إلى أن قال له قلها في أذني حتى أشهد لك بها» لعلمه بأن شهادته مقبولة و كلامه مسموع فيعرف الكامل نائب اللّٰه في عباده نوائب الزمان المستأنفة فيستعد لها عن الأمر الذي كان له منه الاطلاع على منازلتها فيتخيل من لا علم له أنه سعى في حق نفسه و ليس الأمر كذلك و هو كذلك فإنه يباهي الأمم بالأتباع من أمته فكان يطلب الكثرة من المؤمنين



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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