الفتوحات المكية

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(وفق مخطوطة قونية)

فاعتزل صاحب هذا النظر التخلق بالأسماء الحسنى و انفرد بفقره و ذله و صغاره و عجزه و قصوره و جهله في بيته كلما قرع عليه الباب اسم الإلهي قيل له ما هنا من يكلمك فإذا انقدح له بهذا الاعتزال أن اللّٰه له نفي الأولية و أنه أزلي الوجود و نظر في كلامه سبحانه و فيما أمر نبيه صلى اللّٰه عليه و سلم أن يوصله إلينا من صفاته و أسمائه لنعرفه بذلك و يخلع علينا بهذا التعريف خلع العلم تشريفا لنا فأعلمنا إن هذه الصفات التي زعمنا إنا نستحقها و أنها لنا حقيقة إن الأمر على خلاف ذلك إذ قد اتصف هو بها و تسمى بها و نحن ما كنا فلا فرق بين هذه الأسماء و التي اعتزلنا عنها فأما أن نعتزل عن الجميع و إما أن نتسمى بالجميع فقلنا له اعتزل عن الجميع و اترك الحق إن شاء سماك بالأسماء كلها فأقبلها و لا تعترض و إن شاء سماك ببعضها و إن شاء لم يسمك و لا بواحد منها ﴿لِلّٰهِ الْأَمْرُ مِنْ قَبْلُ وَ مِنْ بَعْدُ﴾ [الروم:4] فرجع العبد إلى خصوصيته و هي العبودة التي لم تزاحم الربوبية فتحلى بها و قعد في بيت شيئية ثبوته لا بشيئية وجوده ينظر تصريف الحق فيه و هو معتزل عن التدبير في ذلك فإن تسمى من هذه حالته بأي اسم كان فالله مسميه ما هو تسمى و ليس له رد ما سماه به فتلك الأسماء هي خلع الحق على عباده و هي خلع تشريف فمن الأدب قبولها لأنها جاءته من غير سؤال و لا استشراف و قد أمره رسول اللّٰه صلى اللّٰه عليه و سلم بأخذ مثل هذا العطاء و ترك ما استشرفت النفس إلى أخذه و تمنى ذلك بالاستطلاع إليه و وقف عند ذلك على أنه كان غاصبا لله فيما كان يزعم أنه له فإذا هو لله و هو قوله تعالى ﴿وَ إِلَيْهِ يُرْجَعُ الْأَمْرُ كُلُّهُ﴾ [هود:123] فأخذ منه جميع ما كان يزعم أنه له إلا العبادة فإنه لا يأخذها إذ كانت ليست بصفة له فقال له تعالى لما قال



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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