الفتوحات المكية

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(وفق مخطوطة قونية)

(السؤال العشرون)و أي اسم منحه من أسمائه

الجواب سؤالك هذا يحتمل أربعة أمور الواحد أن يكون الضمير المرفوع في منحه يعود على اللّٰه الثاني أن يعود على المقام الثالث على الاسم الإلهي الرابع أن يكون الضمير في أسمائه يعود على العبد فيكون الاسم اسم العبد لا اسم اللّٰه و كذلك الضمير المنصوب في منحه الذي هو المفعول الثاني هل هو ضمير اسم إلهي أو هل هو المقام فإن كان الضمير المرفوع اللّٰه أو المقام فيكون الممنوح الاسم بلا شك و إن كان الضمير المرفوع اللّٰه أو الاسم الإلهي أو اسم العبد فيكون المقام هو الممنوح

[العبد لا يتصف بالقرب من اللّٰه إلا باسمه]

فليكن الضمير المرفوع اللّٰه فالممنوح الاسم الإلهي الذي يسمى به العبد في تخلقه أو اسم العبد و هو الأصل في القربة الإلهية فإن العبد لا يتصف بالقرب من اللّٰه إلا باسمه قال اللّٰه لأبي يزيد تقرب إلي بما ليس لي قال يا رب و ما ليس لك قال الذلة و الافتقار و السبب في ذلك أن أصل العبد أن يكون معلولا و لا بد و المعلولية له لذاته و كل معلول فقير ذليل بلا شك لا شفاء يرجى له من هذه العلة فيكون القرب من اللّٰه قربا ذاتيا أصليا

[الأسماء التي يستحقها اللّٰه و العبد و الأسماء التي تعرض لهما]

و إن كان الممنوح اسما إلهيا ليتخلق به العبد كالاسم الرحيم في موطنه و الاسم الملك المتكبر في موطنه فذلك قرب يعرض له من الشارع الذي عينه له فإن للعبد أسماء يستحقها و أسماء تعرض له مثل الأسماء الإلهية إذا تخلق بها العبد و لله أسماء يستحقها و أسماء عرضت له من تنزله لعقول عباده و هي الأسماء التي هي للعبد بحكم الاستحقاق فهل اتصاف الحق بها يكون تخلقا من اللّٰه بأسماء عبده أو تلك الصفات لله حقيقة جهلنا معناها بالنسبة إليه و عرفنا معناها بالنسبة إلينا فيكون العبد متخلقا بها و إن كان يستحقها من وجه معرفته بمعناها إذا نسبت إليه و من كون الباري اتصف بها على طريقة مجهولة عندنا فلا نعرف كيف ننسبها إليه لجهلنا بذاته فتكون أصلا فيه عارضة فينا فلا نستحق شيئا لا من أسمائه و لا مما نعتقد فيها أنها أسماؤنا و هذا موضع حيرة و مزلة قدم إلا لمن كشف اللّٰه عن بصيرته

[العبد لا يستحق شيئا من حيث عينه]



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