الفتوحات المكية

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(وفق مخطوطة قونية)

فإن كنت محمدي المشهد فلا تزد على تلبية رسول اللّٰه صلى اللّٰه عليه و سلم شيئا فتراه بعينه فإنه لا يتجلى لك بتلبيته إلا ما تجلى له و قد تقرر أنه أعلم الخلق بالله و العلم بالله لا يحصل إلا من التجلي و قد تجلى لك في تلبيتك هذه فنظرته بعين محمد صلى اللّٰه عليه و سلم و هي أكمل الأعين لأنه أكمل العلماء بالله و اللّٰه مع العبد في شهوده على قدر علمه به فإن زدت على هذه التلبية فقد أشركت حيث أضفت إليها تلبية أخرى و أنت تعلم أن الجمع يعطي من الحكم ما لا يعطي الإفراد فلا تتخيل أنك لما جئت بتلبيته صلى اللّٰه عليه و سلم كاملة ثم زدت عليها ما شئت إن باستيفائك إياها يحصل لك ما حصل لمن لم يزد عليها هذا جهل من قائله بما هي عليه حقائق الأمور أ لا تراه صلى اللّٰه عليه و سلم لزم تلبيته تلك و ما زاد عليها و لا أنكر على أحد ما لبى به فلم يكن لزومه إياها باطلا فالزم الاتباع تكن عبدا و لا تبتدع في العبودية حكما فتكون بذلك الابتداع ربا فإنه البديع سبحانه

[الشركة لا تصح في الوجود لأن الوجود على صورة الحق]

فالزم حقيقتك تحظ به و إن شاركته لم تحظ به فإنه لا يشارك فتقع في الجهل لأن الشركة لا تصح في الوجود لأن الوجود على صورة الحق و ما في الحق شريك بل هو الواحد الشركة ما لها مصدر تصدر عنه فتحقق هذا التنبيه في الشركة فإنه بعيد أن تسمعه من غيري و إن كان معلوما عنده فإنه يحكم عليه الجبن الذي فطر عليه فيفزع من كون الحق أثبت الشركة وصفا في المخلوق و ما شعر هذا الناظر بقوله أنا أعني الشركاء عن الشرك فمن عمل عملا أشرك فيه غيري فأنا منه بريء و هو الذي أشرك فما قال إن الشركة صحيحة و لا إن الشريك موجود إذ لا يصح وجود معنى الشركة على الحقيقة لأن الشريكين حصة كل واحد منهما معينة عند اللّٰه و إن جهلها الشريكان فأنت الذي أشركت و ما في نفس الأمر شركة لأن الأمر من واحد

هذا هو الحق الذي *** إن قلته لا تغلب

و ما سوى هذا فلا *** فهو مثال يضرب



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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