الفتوحات المكية

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(وفق مخطوطة قونية)

[صدقتك على زيد هي عين صدقتك على نفسك]

فمثل هذه الصدقة إذا أكلها السائل أثمرت له طاعة و هداية و نورا و علما و هذا كله هو تربية الرحمن لها فإن جميع ما أعطته قوة هذه الصدقة في نفس السائل مما ذكرناه من طاعة و هداية و نور و علم يراه في الآخرة في ميزانه و في ميزان من أعطاه و هو المتصدق نائب اللّٰه فيقال له هذه ثمرة صدقتك قد عادت بركتها عليك و على من تصدقت عليه فإن صدقتك على زيد هي عين صدقتك على نفسك فإن خيرها عليك يعود

[أفضل الصدقات]

و أفضل الصدقات ما يتصدق به الإنسان على نفسه فيحضر هذا أيضا المتصدق على أكمل الوجوه في نفسه فمثل هذه الصدقة لا يقال لمعطيها يوم القيامة من أين تصدقت و لا لمن أعطيت فإنه بهذه المثابة فإن كان الآخذ مثله في هذه المرتبة تساويا في السعادة و فضل المتصدق بدرجة واحدة لا غير و إن لم يكن بهذه المثابة فتكون بحيث الصفة التي يقيمه اللّٰه فيها فإن كانت الصدقة صدقة تطوع فهي منة إلهية كونية فإن كانت زكاة فرض فهي منة إلهية فإن كانت نذرا فهي إلهية كونية قهرية فإن النذر يستخرج به من البخيل و إن كانت هذه الأعطية هدية فما هو من هذا الباب فإن هذا الباب مخصوص بإعطاء ما هو صدقة لا غير

[الصدقة تكبر في يد الرحمن حسا و معنى]

فتكبر هذه الصدقة في يد الرحمن حسا و معنى فالحس منها من حيث ما هي محسوسة فتجدها في الجنة حسية المشهد مرئية بالبصر و المعنى فيها من حيث ما قام به من الكسب الحلال و التقوى فيه و المسارعة بها و طيب النفس بها عند خروجها و مشاهدته ما ذكرناه من الشئون الإلهية فيها فيجدها في الكثيب عند المشاهدة العامة و يجدها في كل زمان تمر عليه الموازين لزمان إخراجها و هو في الجنة فيختص من اللّٰه بمشهد في عين جنته لا يشهده إلا من هو بهذه المثابة



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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