الفتوحات المكية

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(وفق مخطوطة قونية)

فالمعنى الذي أوجب له عدم الخشية إنما هو ارتباط الروح بالجسد فحدث من المجموع ترك الخشية لتعشق كل واحد منهما بصاحبه فلما فرق بينهما رجع كل واحد منهما إلى ربه بذاته فعلم ما كان قبل قد جهله بتركيبه فصحبته الخشية لعلمه فأول ما يدعى به للميت في الصلاة عليه و يثني على اللّٰه به في الصلاة عليه القرآن فإن الميت في مقام الخشية من جهة روحه و من جهة جسمه فإذا عرف العارف فلا يتكلم و لا ينطق إلا بالقرآن فإن الإنسان ينبغي له أن يكون في جميع أحواله كالمصلي على الجنازة فلا يزال يشهد ذاته جنازة بين يدي ربه و هو يصلي على الدوام في جميع الحالات على نفسه بكلام ربه دائبا فالمصلي داع أبدا و المصلى عليه ميت أو نائم أبدا فمن نام بنفسه فهو ميت و من مات بربه فهو نائم نومة العروس و الحق ينوب عنه و لنا في هذا المعنى

يا نائما كم ذا الرقاد *** و أنت تدعى فانتبه

لكن قلبك نائم *** عما دعاك و منتبه

كان الإله يقوم عنك *** بما دعا لو نمت به

في عالم الكون الذي *** يرديك مهما مت به

فانظر لنفسك قبل *** سيرك إن زادك مشتبه

اللهم أبدله دارا خيرا من داره يعني النشأة الأخرى فيقول اللّٰه قد فعلت فإن نشأة الدنيا هي داره و هي دار منتنة كثيرة العلل و الأمراض و التهدم تختلف عليها الأهواء و الأمطار و يخربها مرور الليل و النهار و النشأة الآخرة التي بدلها و هي داره كما قد وصفها الشارع من كونهم لا يبولون و لا يتغوطون و لا يتمخطون نزهها عن القذارات و أن تكون محلا تقبل الخراب أو تؤثر فيها الأهواء ثم يقول و أهلا خيرا من أهله فيقول قد فعلت فإن أهله في الدنيا كانوا أهل بغي و حسد و تدابر و تقاطع و غل و شحناء قال تعالى في الأهل الذي ينقلب إليه الميت ﴿وَ نَزَعْنٰا مٰا فِي صُدُورِهِمْ مِنْ غِلٍّ إِخْوٰاناً عَلىٰ سُرُرٍ مُتَقٰابِلِينَ﴾ [الحجر:47] ثم يقول و زوجا خيرا من زوجه و كيف لا يكون خيرا و هن ﴿قٰاصِرٰاتُ الطَّرْفِ﴾ [الصافات:48]



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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