الفتوحات المكية

رقم السفر من 37 : [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17]
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الصفحة - من السفر
(وفق مخطوطة قونية)

ثم يقول و اهدني لأحسن الأخلاق لا يهدي لاحسنها إلا أنت هو بمنزلة قوله في الدعاء اغسل خطاياي بالماء و الثلج و البرد أي وفقني لاستعمال مكارم الأخلاق في هذا الموطن مما يستحق أن أعاملك بها من الأدب في مناجاتك و الأخذ عنك و الفهم لما تورده علي في كلامك و فهم ما أناجيك به أنا من كلامك هذا كله من أحسن الأخلاق و في أفعالي بهيئات وقوفي بين يديك ظاهرا و باطنا كما شرعت لي فلا يهدي لأحسن الأخلاق إلا أنت أي أنت الموفق لهذه لا قوة لي على إتيان ذلك و لا تعيينه إلا بقوتك و بتعريفك إذ هذا مما لا يدرك بالاجتهاد بل بما تشرعه و تبينه لما كان قدرك مجهولا و ما ينبغي لجلالك غير معلوم و لا نقيس معاملتنا معك بمعاملة العبيد مع الملوك فإنك قلت ليس كمثلك شيء فالأدب الذي يخصنا في معاملتك ما نعلمه إلا منك

[و اصرف عني سيئها لا يصرف عني سيئها إلا أنت]

ثم قال و اصرف عني سيئها لا يصرف عني سيئها إلا أنت ابتداء بالتعليم فتعرفني ما لا ينبغي أن يعامل به جلالك و ثانية أيضا بالاستعمال في ترك ما لا يحسن بقدرك إذ بيدك الأمر كله فقد تعلم العبد و لا تستعمله فيما علمته فاصرف عني سيئ الأخلاق بالعلم و الاستعمال

[لبيك و سعديك]

ثم يقول لبيك و سعديك أي إجابة لك و مساعدة لما دعوتني إليه بقولك على لسان حاجب الباب حي على الصلاة ها أنا قد جئت مجيبا دعاءك لبيك و مساعدة لما تريده مني على نفسي بالقبول

[و الخير كله بيديك]

ثم يقول و الخير كله بيديك لما كان هو الخير المحض فإنه الوجود الخالص المحض الذي لم يكن عن عدم و لا إمكان عدم و لا شبهة عدم كان الخير كله بيديه



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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