Mekkeli Fetihler: futuhat makkiyah

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futmak.com - الفتوحات المكية - الصفحة 1369 - من السفر  من مخطوطة قونية

الصفحة - من السفر
(وفق مخطوطة قونية)

و لا يندفع هذا و لا تزول الكبرياء من الباطن إلا باستعمال أحكام العبودية و الذلة و الافتقار و لهذا شرع الاستنثار في الاستنشاق فقيل له اجعل في أنفك ماء ثم استنثر و الماء هنا علمك بعبوديتك إذا استعملته في محل كبريائك خرج الكبرياء من محله و هو الاستنثار و منه فرض و استعماله في الباطن فرض بلا شك و أما كونه سنة فمعناه أنك لو تركته صح وضوؤك و محله في هذا القدر أنك لو تركت معاملتك لعبدك أو لمن هو تحت أمرك و هنا سر خفي يتضمنه رب أعطني كذا أو لمن هو دونك بالتواضع و أظهرت العزة و حكم الرئاسة لمصلحة تراها أباحها لك الشارع فلم تستنشق جاز حكم طهارتك دون استعمال هذا الفعل و إن كان استعمالها أفضل فهذا موضع سقوط فرضها فلهذا قلنا قد يكون سنة و قد يكون فرضا لعلمنا أنه لو أجمع أهل مدينة على ترك سنة وجب قتالهم و لو تركها واحد لم يقتل فإن النبي صلى اللّٰه عليه و سلم كان لا يغير على مدينة إذا جاءها ليلا حتى يصبح فإن سمع أذانا أمسك و إلا أغار و كان يتلو إذا لم يسمع أذانا إنا إذا نزلنا بساحة قوم ﴿فَسٰاءَ صَبٰاحُ الْمُنْذَرِينَ﴾ [الصافات:177]

[ما من حكم في الشريعة ظاهرا إلا و له ما يقابله باطنا]

و ما من حكم من أحكام فرائض الشريعة و سننها و استحباباتها إلا و لها في الباطن حكم أو أزيد على قدر ما يفتح للعبد في ذلك فرضا كان أو سنة أو مستحبا لا بد من ذلك و حد ذلك في سائر العبادات المشروعة كلها و بهذا يتميز حكم الظاهر من الباطن فإن الظاهر يسرى في الباطن و ليس في الباطن أمر مشروع يسرى في الظاهر بل هو عليه مقصور فإن الباطن معان كلها و الظاهر أفعال محسوسة فينتقل من المحسوس إلى المعنى و لا ينتقل من المعنى إلى الحس



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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