Les révélations mecquoises: futuhat makkiyah

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(وفق مخطوطة قونية)

﴿إِلاّٰ لِيُقَرِّبُونٰا إِلَى اللّٰهِ زُلْفىٰ﴾ [الزمر:3] فأكدوه بزلفى و كان هذا عن نظر و اجتهاد ثم رأوا أصحاب الشرائع المنزلة الإلهية قد قيدوا الناس بالسجود و وضع الوجوه على الأرض و الركوع و الاستقبال على طريق القربة إلى اللّٰه في جهة معينة و تقبيل حجر قالوا لنا إنه يمين اللّٰه و جاءوا بتعظيم شعائر و أعلام محدثات أضافوها إلى اللّٰه و جعلوا تعظيمنا إياها أي لتلك الشعائر و المناسك من تقوى القلوب و قرنوا بذلك التعظيم إذا ظهر منا سعادتنا فزادهم ذلك اعتمادا على ما قرروه و نصبوه من الآلهة و الشرائع و لم يفرقوا بين ما هو وضع لله في خلقه و بين ما وضعوه لأنفسهم من أنفسهم و كلامنا إنما هو مع الأئمة أصحاب النظر الأول الذين وضعوا هذه الأمور معبودة لهم على طريق القربة إلى اللّٰه عزَّ وجلَّ ثم إنهم مما اغتروا به ما رأوه و سمعوه في الشرائع الإلهية من سعادة المجتهد على الإطلاق سواء أخطأ أو أصاب فالأجر له محقق بعد استيفاء النظر في حقه و الاجتهاد في زعمه على قدر ما أعطاه اللّٰه في نفسه من الاستعداد فتخيلوا فيما ليس ببرهان أنه برهان على ما طلبوه فما اتخذوه إلها إلا عن برهان في زعمهم و هو قوله ﴿وَ مَنْ يَدْعُ مَعَ اللّٰهِ إِلٰهاً آخَرَ لاٰ بُرْهٰانَ لَهُ بِهِ﴾ [المؤمنون:117] يعني في زعمه فدل على أنه من قام له برهان في نظره إنه غير مؤاخذ و إن أخطأ فما كان الخطاء له مقصودا و إنما كان قصده إصابة الحق على ما هو عليه الأمر و أصل هذا كله أن لا يعبد غيبا لأنه بالأصالة ما تعوده و لهذا



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