The Meccan Revelations: al-Futuhat al-Makkiyya

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«في رواية يقول العبد» ﴿بِسْمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِيمِ﴾ [الفاتحة:1] يقول اللّٰه ذكرني عبدي ثم قال يقول العبد ﴿إِيّٰاكَ نَعْبُدُ وَ إِيّٰاكَ نَسْتَعِينُ﴾ [الفاتحة:5] يقول اللّٰه هذه بيني و بين عبدي و لعبدي ما سأل فما هي العطاء و إياك في الموضعين ملحق بالإفراد الإلهي يقول العبد ﴿اِهْدِنَا الصِّرٰاطَ الْمُسْتَقِيمَ صِرٰاطَ الَّذِينَ أَنْعَمْتَ عَلَيْهِمْ غَيْرِ الْمَغْضُوبِ عَلَيْهِمْ وَ لاَ الضّٰالِّينَ﴾ فهؤلاء لعبدي هذا هو الإفراد العبدي المألوه و لعبدي ما سأل سأل مألوه ما إلها فلم تبق إلا حضرتان فصح المثاني فظهرت في الحق وجودا و في العبد الكلي إيجادا فوصف نفسه بها و لا موجود سواه في العماء ثم وصف بها عبده حين استخلفه و لذلك خروا له ساجدين لتمكن الصورة و وقع الفرق من موضع القدمين إلى يوم القيامة و القرآن العظيم الجمع و الوجود و هو إفراده عنك و جمعك به و ليس سوى قوله ﴿إِيّٰاكَ نَعْبُدُ وَ إِيّٰاكَ نَسْتَعِينُ﴾ [الفاتحة:5] و حسب ﴿وَ اللّٰهُ يَقُولُ الْحَقَّ وَ هُوَ يَهْدِي السَّبِيلَ﴾ [الأحزاب:4]

(واقعة) [الحمد لله من طريق الأسرار]

أرسل رسول اللّٰه صلى اللّٰه عليه و سلم عثمان رضي اللّٰه عنه إلي آمرا بالكلام في المنام بعد ما وقعت شفاعتي على جماعتي و نجا الكل من أسر الهلاك و قرب المنبر الأسنى و صعدت عليه عن الأذن العالي المحمدي الأسمى بالاقتصار على لفظة الحمد لله خاصة و نزل التأييد و رسول اللّٰه صلى اللّٰه عليه و سلم عن يمين المنبر قاعد فقال العبد بعد ما أنشد و حمد و أثنى و بسمل حقيقة الحمد هي العبد المقدس المنزه لله إشارة إلى الذات الأزلية و هو مقام انفصال وجود العبد من وجود الإله ثم غيبه عن وجوده بوجوده الأزلي و أوصله به فقال لله فاللام الداخلة على قوله اللّٰه الخافضة له هي حقيقة المألوه في باب التواضع و الذلة و هي من حروف المعاني لا من حروف الهجاء ثم قدمها سبحانه على اسم نفسه تشريفا لها و تهمما و تنزيها لمعرفتها بنفسها و تصديقا لتقديم النبي صلى اللّٰه عليه و سلم إياها في «قوله من عرف نفسه عرف ربه»



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