The Meccan Revelations: al-Futuhat al-Makkiyya

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﴿وَ الذّٰاكِرِينَ اللّٰهَ كَثِيراً وَ الذّٰاكِرٰاتِ﴾ [الأحزاب:35] و قال ﴿اُذْكُرُوا اللّٰهَ ذِكْراً كَثِيراً﴾ [الأحزاب:41] و «قد ورد أن الإنسان إذا كان بأرض فلاة فدخل الوقت و ليس معه أحد قام فاذن فإذا أذن صلى خلفه من الملائكة كأمثال الجبال» و من كانت جماعته مثل أولئك يؤمنون على دعائه كيف يشقى و إنما وصينا بمثل هذا لغفلة الناس عن مثله فالعاقل من لا يغفل عن فعل ما له فيه الخير الباقي عند اللّٰه عزَّ وجلَّ فإن ذلك من رحمتك بنفسك فإن اللّٰه جعل رحمتك بنفسك أعظم من رحمتك بغيرك كما جعل أذاك نفسك أعظم في الوزر من أذاك غيرك قال في قاتل الغير إذا لم يقتل به أمره إلى اللّٰه إن شاء عفا عنه و إن شاء أخذه و قال في القاتل نفسه حرمت عليه الجنة و «قال ﷺ الراحمون يرحمهم الرحمن» فمن رحم نفسه يسلك بها سبيل هداها و يحول بينها و بين هواها فرحمه اللّٰه رحمة خاصة خارجة عن الحد و المقدار فإنه رحم أقرب جار إليه و هي نفسه و رحم صورة خلقها اللّٰه على صورته فجمع بين الحسنيين مراعاة قرب الجوار و مراعاة الصورة و أي جار سوى نفسه فهو أبعد منها و لذلك أمر الداعي إذا دعا أن يبدأ بنفسه أولا مراعاة لحقها و السر الآخر أن الداعي لغيره يحصل في نفسه افتقار غيره إليه و يذهل عن افتقاره فربما يدخله زهو و عجب بنفسه لذاك و هو داء عظيم فأمره رسول اللّٰه ﷺ أن يبدأ لنفسه بالدعاء فتحصل له صفة الافتقار في حق نفسه فتزيل عنه صفة الافتقار صفة العجب و المنة على الغير و في أثر ذلك يدعو للغير على افتقار و طهارة فلهذا ينبغي للعبد أن يبدأ بنفسه في الدعاء ثم يدعو لغيره فإنه أقرب إلى الإجابة لأنه أخلص في الاضطرار و العبودية و مثل هذا النظر مغفول عنه لا أحد أعظم من الوالدين و أكبر بعد الرسل حقا منهما على المؤمن و مع هذا أمر الداعي أن يقدم في الدعاء نفسه على والديه فقال نوح ع ﴿رَبِّ اغْفِرْ لِي وَ لِوٰالِدَيَّ وَ لِمَنْ دَخَلَ بَيْتِيَ مُؤْمِناً وَ لِلْمُؤْمِنِينَ وَ الْمُؤْمِنٰاتِ﴾ [نوح:28] و قال الخليل إبراهيم عليه السّلام في دعائه



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