The Meccan Revelations: al-Futuhat al-Makkiyya

Volume number (out of 37): [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17]
[18] [19] [20] [21] [22] [23] [24] [25] [26] [27] [28] [29] [30] [31] [32] [33] [34] [35] [36] [37]

الصفحة - من السفر وفق مخطوطة قونية (المقابل في الطبعة الميمنية)

  الصفحة السابقة

المحتويات

الصفحة التالية  
futmak.com - الفتوحات المكية - الصفحة 10226 - من السفر  من مخطوطة قونية

الصفحة - من السفر
(وفق مخطوطة قونية)

﴿فَعّٰالٌ لِمٰا يُرِيدُ﴾ [هود:107] فما أراد إلا المناسب فأنت صاحب الآية

[اللؤلؤ المنثور من خلف الستور]

و من ذلك اللؤلؤ المنثور من خلف الستور من الباب 393 قال من أراد التكوين فليقل بسم اللّٰه و إن كتبه فليكتبه بالألف و قال الأدب مع اللّٰه أن لا تشارك فيما أنت فيه مشارك و قال ما هو إلا أنت أو هو ما أنت و هو فما ثم مشاركة و قال أنت له مقابل فإنك عبد و هو سيد و قال عامله بك لا نعامله به فإذا عاملته بك عاملك به فأغناك و ما أقول عمن و لذلك لا يشقى أحد بعد السعادة و قال أحمد اللّٰه على كل حال يدخل في حمدك حال السراء و الضراء و ما ثم إلا هاتان الحالتان و قال الزم الاسم المركب من اسمين فإن له حقا عظيما و هو قولك ﴿اَلرَّحْمٰنِ الرَّحِيمِ﴾ [الفاتحة:1] خاصة ما له اسم مركب غيره فله الأحدية هو كبعلبك و رام‌هرمز من ذكره بهذا الاسم لا يشقى أبدا

[من لم يرفع به رأس من الناس]

و من ذلك من لم يرفع به رأس من الناس من الباب 394 قال ما احتقر اللّٰه من خلقه حين خلقه فانظره بالعين الذي نظر إليه الحق حين أوجده فإنه ما أوجده إلا ليسبحه بحمده و قال العبد يخلق في نفسه ما يعتقده فيعظمه و لا يحتقره فما يخلق اللّٰه أولى بالتعظيم و هذه نكتة عجيبة لمن تدبرها تحتها إعلام بالعلم بالله إن علمت و قال المفوض إلى اللّٰه أمره مقوض ما بناه الحق إلا أن يجل تقويضه مما بناه الحق فيه فلا يكون عند ذلك مقوضا و قال خطاب اللّٰه بضمير المواجهة تحديد و بضمير الغائب تحديد و لا بد منها

[القرب المفرط من المفرط]

و من ذلك القرب المفرط من المفرط من الباب 395 قال إذا سألت فاسأل أن يبين لك الطريق إليه لا بل إلى سعادتك فإنه ما ثم طريق إلا إليه سواء شقي السالك أو سعد و قال ما أجهل من نزه الحق أن يكون شريعة لكل وارد هذا شؤم النظر الفكري و هل ثم طريق لا يكون هو عينه و غايته و بدءه و قال لو لا نور الايمان ما علمت ما يعطيه العيان فلا أقوى من المؤمن حاسا و قال إلى الحيرة هو الانتهاء و ما بيد العالم بالله من العلم بالله سواها ما أحسن الإشارة في كون اللّٰه ما ختم القرآن العظيم الذي هو الفاتحة إلا بأهل الحيرة و هو قوله



هذه نسخة نصية حديثة موزعة بشكل تقريبي وفق ترتيب صفحات مخطوطة قونية
  الصفحة السابقة

المحتويات

الصفحة التالية  
  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

ترقيم الصفحات موافق لمخطوطة قونية (من 37 سفر) بخط الشيخ محي الدين ابن العربي - العمل جار على إكمال هذه النسخة.
(المقابل في الطبعة الميمنية)

 
الوصول السريع إلى [الأبواب]: -
[0] [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17] [18] [19] [20] [21] [22] [23] [24] [25] [26] [27] [28] [29] [30] [31] [32] [33] [34] [35] [36] [37] [38] [39] [40] [41] [42] [43] [44] [45] [46] [47] [48] [49] [50] [51] [52] [53] [54] [55] [56] [57] [58] [59] [60] [61] [62] [63] [64] [65] [66] [67] [68] [69] [70] [71] [72] [73] [74] [75] [76] [77] [78] [79] [80] [81] [82] [83] [84] [85] [86] [87] [88] [89] [90] [91] [92] [93] [94] [95] [96] [97] [98] [99] [100] [101] [102] [103] [104] [105] [106] [107] [108] [109] [110] [111] [112] [113] [114] [115] [116] [117] [118] [119] [120] [121] [122] [123] [124] [125] [126] [127] [128] [129] [130] [131] [132] [133] [134] [135] [136] [137] [138] [139] [140] [141] [142] [143] [144] [145] [146] [147] [148] [149] [150] [151] [152] [153] [154] [155] [156] [157] [158] [159] [160] [161] [162] [163] [164] [165] [166] [167] [168] [169] [170] [171] [172] [173] [174] [175] [176] [177] [178] [179] [180] [181] [182] [183] [184] [185] [186] [187] [188] [189] [190] [191] [192] [193] [194] [195] [196] [197] [198] [199] [200] [201] [202] [203] [204] [205] [206] [207] [208] [209] [210] [211] [212] [213] [214] [215] [216] [217] [218] [219] [220] [221] [222] [223] [224] [225] [226] [227] [228] [229] [230] [231] [232] [233] [234] [235] [236] [237] [238] [239] [240] [241] [242] [243] [244] [245] [246] [247] [248] [249] [250] [251] [252] [253] [254] [255] [256] [257] [258] [259] [260] [261] [262] [263] [264] [265] [266] [267] [268] [269] [270] [271] [272] [273] [274] [275] [276] [277] [278] [279] [280] [281] [282] [283] [284] [285] [286] [287] [288] [289] [290] [291] [292] [293] [294] [295] [296] [297] [298] [299] [300] [301] [302] [303] [304] [305] [306] [307] [308] [309] [310] [311] [312] [313] [314] [315] [316] [317] [318] [319] [320] [321] [322] [323] [324] [325] [326] [327] [328] [329] [330] [331] [332] [333] [334] [335] [336] [337] [338] [339] [340] [341] [342] [343] [344] [345] [346] [347] [348] [349] [350] [351] [352] [353] [354] [355] [356] [357] [358] [359] [360] [361] [362] [363] [364] [365] [366] [367] [368] [369] [370] [371] [372] [373] [374] [375] [376] [377] [378] [379] [380] [381] [382] [383] [384] [385] [386] [387] [388] [389] [390] [391] [392] [393] [394] [395] [396] [397] [398] [399] [400] [401] [402] [403] [404] [405] [406] [407] [408] [409] [410] [411] [412] [413] [414] [415] [416] [417] [418] [419] [420] [421] [422] [423] [424] [425] [426] [427] [428] [429] [430] [431] [432] [433] [434] [435] [436] [437] [438] [439] [440] [441] [442] [443] [444] [445] [446] [447] [448] [449] [450] [451] [452] [453] [454] [455] [456] [457] [458] [459] [460] [461] [462] [463] [464] [465] [466] [467] [468] [469] [470] [471] [472] [473] [474] [475] [476] [477] [478] [479] [480] [481] [482] [483] [484] [485] [486] [487] [488] [489] [490] [491] [492] [493] [494] [495] [496] [497] [498] [499] [500] [501] [502] [503] [504] [505] [506] [507] [508] [509] [510] [511] [512] [513] [514] [515] [516] [517] [518] [519] [520] [521] [522] [523] [524] [525] [526] [527] [528] [529] [530] [531] [532] [533] [534] [535] [536] [537] [538] [539] [540] [541] [542] [543] [544] [545] [546] [547] [548] [549] [550] [551] [552] [553] [554] [555] [556] [557] [558] [559] [560]


Please note that some contents are translated from Arabic Semi-Automatically!